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(v) अन्य धर्मों का बढ़ता हुमा प्रमाव:
जैनिज्म (Jainism) अन्य धर्मों के बढ़ते हुए प्रभाव को उपेक्षा की दृष्टि से देखता रहा और उनके विकास साधनों को अपनाने की कोशिश नहीं की, प्रत्युत अपने आप को 'एकाततः प्राध्यात्मिक' बनाये रखने की प्रवृत्ति उत्पन्न करली। इस प्रकार व्यर्थ मे ही पृथक्त्व (I solation) से अपने आप को दण्डित कर लिया।
(vi) जैन धर्म का विभाजन:
जैन धर्म सदा के लिये दिगम्बर, श्वेताम्बर दो बड़े सम्प्रदायों में बट गया । इन दोनों सम्प्रदायों ने आपसी विरोध की पक्की दीवारें खड़ी कर ली। समय बीतने पर ये दो सम्प्रदाय आगे कई छोटे छोटे भागों में बट गए । साधारण नियमों पर ऊहा पोह होने लगी। इस प्रकार ये शाखाएं और उपशाखाएं एक दूसरे से द्वेष और घणा करते हुए समय बिताने लगी और अपनी शक्ति कमजोर करने लगी। इससे जैन धर्म के 'केन्द्रीय संगठन' को भारी धक्का लगा।
(vii) उत्तर गुणों को प्राथमिकता:
उत्तरकालीन प्राचार्यों ने पिछली दो तीन शताब्दियों से गृहस्थों को जो उपदेश दिये उनमे मूलगुणों के स्थान पर उत्तरगुणों का अत्यधिक प्रचार किया गया-जैसे हरी शाक सब्जी का त्याग आदि ।
(viii) जैन सम्प्रदायों के भिन्न-भिन्न धर्मशास्त्र:
जैन दिगम्बर सम्प्रदाय का मत है कि 'आगम' नष्ट हो चुके हैं । वे षट्खण्डागम' को मानते हैं जिसका आचार्य पुष्पदंत और प्राचार्य भूतबलि ने संकलन किया था। जैन श्वेताम्बर 45 आगमो को मानते हैं । जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी 32 आगम प्रमाण मानते हैं । ये सभी मतभेद धर्माचार्यों और पण्डितों के भिन्न भिन्न विचारों के