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जाती है जिसमें यह दर्शाया गया है कि हमारा उद्देश्य 'मात्म-मुक्ति, निजीमुक्ति या व्यक्तिगत मुक्ति' है। इन विचारों से हम समाज से अलग जा पड़ते हैं। हम सामाजिक सपठन या सामाजिक शक्ति का ह्रास होते देखकर अधिक चिन्तित नहीं होते क्योंकि हमारे साथहानि का रूप सामाजिक न होकर 'व्यक्तिगत' हो जाता है ।
(iii) राज्य-प्राश्रय से वंचित:
राज्य-प्राश्रय हटने से जैन धर्म को बड़ी हानि पहुँची । इससे जैनाचार्यों के कार्य-क्रम में बड़ा व्यवधान पड़ा। राज्याश्रय न रहने से राज-शक्ति विरोधी पक्ष के इशारे पर नाचने लगी और जैन धर्म को हानि पहुचाने पर उतर आई । अनेक कठिनाइयो का वातावरण उत्पन्न हो गया।
(iv) असफल नेतृत्वः -
जैन धर्म में ऐसे नेतृत्व का प्रभाव हो गया जो राजनीति और धर्मनीति को साथ साथ लेकर चल सकता। धर्मनीति के मुकाबले में राजनीति की उपेक्षा की जाने लगी। एक प्राचार्य का कथन है कि धर्म ‘पंगु' है, यह किसी के सहारे ही चल सकता है । धनी और सत्ताधारी वर्ग इसके प्रचार साधनो को जुटाते है और इसकी गति को तीव्र करते है।
धर्म प्रचार में जो शिथिलता आई उसका प्रमुख कारण साधुसंस्था का अभाव, धन के प्रति तीव्र मोह, और मानसिक स्वार्थवृत्ति थी। जिसने प्राचीन धारा को दूसरी और मोड़ दिया। धन सम्पत्ति का उपयोग जिन कार्यों में खर्च होना चाहिए था वहां न होकर अन्य कम उपयोगी कार्यों मे व्यय हुआ । फल स्वरूप जागृति का प्रवाह रुक गया।