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यक न बने तो मनुष्य की उन्नति के मार्ग बन्द हो जायें-साधना, स्वर्ग और मोक्ष कल्पना की बाते बनकर रह जायें।
कारागार में एक व्यक्ति कैद है। तग कोठडी में सर्प और बिच्छ डॉस और मच्छर के हर समय काटने का भय है। काल-कोठडी की गर्मी से वह बेहाल हो रहा है। यदि कोई उसे इस भयकर कारागार से छूडा दे तो उसका कितना उपकार मानेगा वह कैदी ! ___ इस शरीर के कारागार से छुड़ा देने वाली मृत्यु को क्यो न उपकारी माना जाये। इस जर्जर और रोगो से व्याप्त देह-रूपी पिजरे से निकालकर दिव्य देह प्रदान करने वाला मृत्यु से अधिक उपकारक और कौन होगा ?
वस्तुतः मृत्यु कोई कष्टप्रद वस्तु नही वरन् टूटी फूटी झोपडी को छोडकर 'नवीन भवन' में निवास करने के ममान एक आनन्दप्रद कार्य है। किन्तु अज्ञानता के कारण पैदा हुअा वस्तुओं में ममत्वभाव इस नफे के व्यापार को घाटे का सौदा बना देता है । अज्ञानी जीव अपने परिवार और भोग साधनों के विछोह की कल्पना करके मृत्यु के समय हाय-हाय करता है, तडपता है, छटपटाता है और पाकुल व्याकुल हो जाता है। परन्तु मर्मज्ञ तत्वदर्शी पुरुष अनासक्त होने के कारण मध्यस्थभाव मे स्थिर रहता है और जीवन भर के साधना के मदिर पर स्वर्णकलश चढा लेता है। वह परम शांत एवं निराकुल भाव से अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है और इस प्रकार अपने वर्तमान को ही नही, वरन् भविष्य को भी मंगलरूप बना देता है ।
संयमी और कर्नव्यशील जीवन ही सर्वोत्कृष्ट जीवन है। जब तक जीओ विवेक और आनन्द से जीनो, ध्यान और समाधि की तन्मयता से जीओ, अहिंसा और सत्य के प्रसार के लिये जीओ। और जब मृत्यु आवे तो आत्मसाधना की पूर्णता के लिये, पुनर्जन्म में अपने प्राध्या