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अध्याय
भगवान महावीर का कर्मवाद
[शुभ करो, शुभ होगा
अशुभ करो, अशुभ होगा] [और शुद्ध प्रात्मतत्व मे लीन होगे तो शुद्ध होगा जो कर्मक्षय का कारण है ।]
पुद्गल द्रव्य की अनेक जातिया है। उनमें एक 'कार्मण वर्गणा' भी है। यही कर्म-द्रव्य है । कर्म-द्रव्य सम्पूर्ण लोक में सूक्ष्म रज के रूप में व्याप्त है। वही कर्म-द्रव्य मन, वचन और काय के योग (मिलान) द्वारा आकृष्ट होकर जीवात्मा के साथ बद्ध हो जाते है और 'कर्म' कहलाने लगते है।।
कर्म विजातीय द्रव्य होने के कारण आत्मा में विकृति उत्पन्न करते है और उसे पराधीन बनाते हैं ।
जीवात्मा पर-पदार्थों का उपभोग करता हुआ राग-द्वष के कारण किसी कर्म को सुखरूप और किसी को दुःख रूप मानता है। सुख दुःख की अनुभूति तो तत्काल ही समाप्त हो जाती है किन्तु बच रहे संस्कार समय आने पर अपना प्रभाव दिखलाते हैं।
संसार के समस्त प्राणियों के पीछे राग द्वेष की वृत्ति काम करती है। वही प्रवृत्ति अपना एक संस्कार छोड़ जाती है। उस संस्कार से पुनः प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्ति से पुनः संस्कार का निर्माण होता