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________________ ३२ शरीर का राजा और आत्मा का मंत्री होने के कारण मन कभी कमी आत्मा को मोह में फसा लेता है और इधर उधर भटकता फिरता है । यदि वही मन वशीभूत हो जाता है तो एकाग्रता - लाभ मे सहायक बनता है तथा मति ज्ञान और श्रुति ज्ञान का कारण बन जाता है । हे महामुने । मन एक दुर्जेय शत्रु है । क्रोध, मान, माया, लोभ में चार कषाय तथा स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, श्रोत्र, ये पाचो इ द्रियाँ मिलकर शत्रु बनते है इन्हे ठीक रूप से जीतना चाहिए और सच्चा आनन्द प्राप्त करना चाहिए । हे साधक ! मन बहुत ही साहसिक, रौद्र और दुष्ट प्रश्व है जो चारो और दौड़ता फिरता है । इस अश्व को धर्म - शिक्षा द्वारा अच्छी तरह काबू किया जा सकता है । प्राचीन तत्वचितकों ने 'लेश्या' विषय पर बड़ा सुदर विवेचन किया है जो आधुनिक मानस शास्त्रियों के लिए बड़ा रुचिकर और बोध- प्रद है । लेश्या विचार मे यह देखा जाता है कि :-- मानस वृत्तियों का कैसा 'वर्ण' होता है ? मनोविचारो को कितने वर्गों में बांटा जा सकता है ? मनोविचारो का उद्गम स्थान क्या है ? उनमें 'वर्ण' आता कहाँ से है ? इत्यादि मानसिक चचल लहरिया 'पुद्गलों' से सम्मिश्रित होती हैं । पुद्गल मूर्त है । वैचारिक समूह का द्रव्य रूप पुद्गलमय होता है । जैसे विचार, वैसा वर्ण । और जैसे जैसे विचार वैसे वैसे पुद्गल का आकर्षण ।
SR No.010210
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShadilal Jain
PublisherAdishwar Jain
Publication Year
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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