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है। इसी कारण से उपनिषदो में कही-कही व्रात्यो की अधिक प्रशसा की गई है । 'प्रश्नोपनिषद् में कहा गया है-व्रात्यस्त्वं प्राणक ऋषि रत्ता विश्वस्य सत्पतिः । हिन्दी मे 'शकर भाष्य' में व्रात्य का अर्थ स्वभावत: एक शुद्ध 'इत्यभिप्राय' किया गया है । अतः सिद्ध हुआ कि 'यति और व्रात्य' अपने समय मे त्यागमूलक समाज का प्रतिनिधित्व करते थे। इस काल के त्याग-प्रधान प्रवृत्ति के सवाहक श्रमण संस्कृति' के उपासक ही हो सकते थे जो 'यति तथा प्रात्य' जैसे भिन्न भिन्न नामों से पुकारे गये।।
__ श्रमण संस्कृति के मुनियों, यतियो, व्रात्यो की भारतीय समाज को यह अद्वितीय देन है कि उन्होने भाषाई और बाहरी सस्काराडम्बरों में पड़ने की अपेक्षा सीधी-सादी प्रचलित लोकभाषा में अहिसा के माध्यम से आत्म-गुणो का विकास करने का नारा लगाया। उन्होने सादगी, सच्चाई और मानसिक सफाई की छाप समाज में जन-जन के हृदय पर लगाई।
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