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________________ 'मुनि' आत्मज्ञता में बहुत आगे है । वह प्रायः अन्तर्मुखी है । शरीर एव वस्त्र का उसे ध्यान नही है । वह नगा भी रह सकता है। उसे बाहरी स्नान-मजन की आवश्यकता महसूस नही होती। चू कि वह सदा आत्म-चितन मे लीन रहता है, मनन करता है अतएव वह मुनि है । मुनि पूर्ण ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करता है, पूर्ण अहिसक है, पूर्ण अपरिग्रही है। ___'वेद' मे 'वातरशना' मुनियो का वर्णन आता है। केशी' मुनि को वातरशना मुनियो मे सर्वप्रथम माना गया है। केशी और केसरी एक ही अर्थ के द्योतक है। चौदहवे कुलकर (मनु) 'नामि' के पुत्र 'ऋषभ' की महिमा वेदो ने बहुत गाई है। 'केशी, केसरी, केसरिया नाथ' ऋषभ भगवान् के गुणवाचक शब्द है। ऋषभ एक ऐसे अवतारी पुरुष हैं जिनका आदर वैदिक संस्कृति व श्रमण सस्कृति समान रूप से करती है। आचारं की दृष्टि से 'श्रमण' का दूसरा नाम 'मुनि' ही है । श्रमण आत्मविकास के लिए अत्यन्त परिश्रम करके एव जागरूक रह कर अन्तर्ज्योति को प्रज्वलित करता है। वह अपनी इच्छाओ का निरोध करके प्राणिमात्र का हित चाहता है। सेवा, परोपकार और धर्म प्रचार मे वह जीवन का आनन्द अनुभव करता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह उसके आजन्म अभिन्न सखा है । 'मुनि' ऐसी श्रमण संस्कृति का एकमात्र प्रतीक है। श्रीमद्भागवत में वातरशना श्रमणो को आत्मविद्याविशारद, ऋषि, शान्त, सन्यासी और श्रमण कह कर ऊर्ध्वगमन द्वारा उनके ब्रह्मलोक में जाने की बात कही है। बौद्ध धर्म में बताया कि "श्रमण चाहे भाषण कम करे किन्तु तदनुसार धर्म का आचरण करता हो, राग द्वेष से मुक्त हो । जो शान्त
SR No.010210
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShadilal Jain
PublisherAdishwar Jain
Publication Year
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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