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मेन, पोट और गीता का समाज दर्शन
है।' इस प्रकार हम देखते है कि भाचार्य शंकर की दृष्टि में वैचारिक आग्रह या दार्शनिक मान्यताएं आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से अधिक मूल्य नहीं रखती। वैदिक नीति-वत्ता शुक्राचार्य बाग्रह को अनुचित और मूर्खता का कारण मानते हुए कहते हैं कि अत्यन्त आग्रह नहीं करना चाहिए क्योंकि अति सब जगह नाश का कारण है । अत्यन्त दान से दरिद्रता, अत्यन्त लोभ से तिरस्कार और अत्यन्त आग्रह मे मनुष्य की मर्खता परिलक्षित होती है। वर्तमान युग में महात्मा गांधी ने भी वैचारिक आग्रह को अनैतिक माना और सर्वधर्म समभाव के रूप में वैचारिक अनाग्रह पर जोर दिया । वस्तुतः आग्रह सत्य का होना चाहिए, विचारों का नहीं। सत्य का आग्रह तभी हो सकता है जब हम अपने वैचारिक आग्रहों से ऊपर उठे। महात्माजी ने मत्य के आग्रह को तो स्वीकार किया, लेकिन वैचारिक आग्रहों को कभी स्वीकार नहीं किया। उनका सर्वधर्म समभाव का सिद्धान्त इसका ज्वलन्त प्रमाण है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्परागों में अनाग्रह को मामाजिक जीवन की दृष्टि से सदेव महत्त्व दिया जाता रहा है, क्योंकि वैचारिक संघर्षों में समाज को बचाने का एकमात्र मार्ग अनाग्रह ही है। बैचारिक सहिष्णुता का बापार-बनामह (अनेकान्त दृष्टि)
जिस प्रकार भगवान् महावीर और भगवान बुद्ध के काल में वैचारिक संघर्ष उपस्थित थे और प्रत्येक मतवादी अपने को सम्यक्प्टी और दूसरे को मिथ्यादप्टी कह रहा था, उसी प्रकार वर्तमान युग में भी पंचारिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर है। सिद्धान्तों के नाम पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की दीवारें खींची जा रही हैं। कहीं धर्म के नाम पर, तो कहीं राजनैतिक वाद के नाम पर एकदूसरे के विरुद्ध विषवमन किया जा रहा है । धार्मिक एवं राजनैतिक साम्प्रदायिकता जनता के मानस को उन्मादी बना रही है। प्रत्येक धर्मवाद या राजनैतिक वाद अपनी सत्यता का दावा कर रहा है और दूसरे को भ्रान्त बता रहा है । इस पार्मिक एवं राजनैतिक उन्माद एवं असहिष्णुता के कारण मानव मानव के रक्त का प्यासा बना हुआ है। आज प्रत्येक राष्ट्र का एवं विश्व का वातावरण तनावपूर्ण एवं विक्षुब्ध है। एक ओर प्रत्येक राष्ट्र की राजनैतिक पाटिया या धार्मिक सम्प्रदाय उसके आन्तरिक वातावरण को विक्षुब्ध एवं जनता के पारस्परिक सम्बन्धों को तनावपूर्ण बनाये हुए हैं, तो दूसरी ओर राष्ट्र स्वयं भी अपने को किसी एक निष्ठा से सम्बन्धित कर गुट बना रहे हैं। और इस प्रकार विश्व के वातावरण को तनावपूर्ण एवं विक्षम्य बना रहे है । मात्र इतना ही नहीं यह वैचारिक असहिष्णुता, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन को विषाक्त बना रही है। पुरानी और नई पीढ़ी के वैचारिक विरोध के कारण आज समाज और परिवार का वातावरण भी अशान्त और कलहपूर्ण हो रहा है। बंचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक १. विवेकचूड़ामणि ६१.
२. शुक्रनीति, ३१२११-२१३.