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सामाजिक नैतिकता के दोष तरस : बहिसा, असाह मोर मारिवह वह संस्कार, उपरति तथा तृष्णा रहित है ।"
इतना ही नही, बुद्ध मदाचरण ओर माध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में इस प्रकार के वाद-विवाद या वाग्विलास या आग्रह-वृत्ति को अनुपयुक्त समझते हैं । उनको दृष्टि में यह पक्षाग्रह या वाद-विवाद निर्वाण-मार्ग के पथिक का कार्य नहीं है । यह तो मल्लविद्या है-राजभोजन में पुष्ट पहलवान की तरह (प्रतिवादो के लिए) ललकारने वाले वादी का उम जैसे वादी के पास भेजना चाहिए क्योंकि मुक्त पुरुषों के पास विवादरूपी युद्ध के लिए कोई कारण हो शेष नहो रहा । जो किसी दृष्टि को ग्रहण कर विवाद करते है और अपने मत को हो सत्य बताते हैं उनसे कहना चाहिए कि विवाद उत्पन्न होने पर तुम्हारे माथ बहम करने का यहां कोई नहीं है । इस प्रकार हम देखते है कि बोट दर्शन वैचारिक अनाग्रह पर जैन दर्शन के समान हो जोर देता है बुद्ध ने भी महावीर के ममान ही दृष्टिगग को अनुपयुक्त माना है और बताया कि सत्य का मभूर्ण प्रकटन वहीं होता है, जहाँ मारी दृष्टियां मुन्न हो जाती हैं । यह भी एक विचित्र गंयोग है कि महावीर के अन्नेवासी इन्द्रभूति के ममान हो बुद्ध के अन्नेवासी आनन्द का भी बुड के जीवन काल में अहंत पद प्राप्त नहीं हा मका। सम्भवतः यहाँ भी गही मानना होगा कि शास्त्र के प्रति आनन्द का जो दृष्टिराग था, वही उसके अहंत होने में बाग था। इम गन्बन्ध में दानों धर्मों के निष्कर्ष ममान प्रतीत होते हैं। गोता में अनाग्रह
वैदिक परम्परा में भी अनाग्रह का मचिन महत्व और स्थान है। गीता के अनुसार आग्रह की वृति आमुगे पनि है। श्रीकृष्ण कहते है कि आमुरो स्वभाव के लोग दम्भ, मान और मद मे युक्त होकर किमी प्रकार भो पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय ले अज्ञान में मिथ्या मिद्धान्तों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों में युक्त हो संगार में प्रवृत्ति करने रहते हैं। इतना ही नही, आग्रह का प्रत्यय तप, ज्ञान और धारणा नभी को विकृत कर देता है । गीता में आग्रहयुक्त तप को तामम तप ओर आग्रहयुक्त धारणा को तामस धारणा कहा है। आचार्य शंकर तो जैन परम्परा के ममान वैचारिक आग्रह को मक्ति में बाषक मानते हैं। विवेकचूड़ामणि में वे कहते हैं कि विद्वानों को वाणी को कुशलता, शब्दों को धारावाहिता, शास्त्र-व्याख्यान की पटुता और विद्वत्ता यह मब भोग का ही कारण हो मकने हैं, मोक्ष का नहीं।' शब्दजाल चित्त को भटकाने वाला एक महान वन है । वह चितभ्रान्ति का हो कारण है। आचार्य विभिन्न मत-मतान्तरों से युक्त शास्त्राध्ययन को भी निरर्थक मानते है । वे कहते हैं कि यदि परमतत्व का अनुभव नहीं किया तो शास्त्रा. ध्ययन निष्फल है और यदि परमतत्त्व का ज्ञान हो गया तो शास्त्राध्ययन अनावश्यक १. मुत्तनिपात, ५११२, ३, १०, ११, १६-२०. २. वही, ४६१८-१. ३. गीता, १६-१०.
४. वही, १७।१९, १८।३५. ५ विवेकचूड़ामणि, ६०.
६. वही, ६२.