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बेन, बोर और गोता का समाव बर्मन जल, भखों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषध और वन में जैसे सार्थवाह का साप माघारभूत है, वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिए आधारभूत है। अहिंमा घर एवं अपर सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है।' वह शाश्वत धर्म है, जिसका उपदेश तीर्थकर करते हैं । आचारांगसूत्र में कहा गया है-भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी बहत् यह उपदेश करते है कि किसी भी प्राण, पूत, जीव और सत्व को किसी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुःख नहीं देना चाहिए, न किमी का हनन करना चाहिए । यही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म है। समस्त लोक की पीड़ा को जानकर बहतों ने इसका प्रतिपादन किया है। सूत्रकृतांगसत्र के अनुसार ज्ञानी होने का सार यह है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करें । अहिंसा ही समग्र धर्म का सार है, इसे सदैव स्मरण रखना चाहिए । दशवकालिकमूत्र में कहा गया है कि सभी प्राणियों के हित साधन में अहिंसा के सर्वश्रेष्ठ होने से महावीर ने इसको प्रथम स्थान दिया है। अहिंसा के समान दूसरा धर्म नहीं है।"
भाचार्य अमृतचन्द्रसूरि के अनुसार तो जैन आचार-विधि का सम्पूर्ण क्षेत्र अहिंसा से व्याप्त है, उसके बाहर उसमें कुछ है ही नहीं। सभी नैतिक नियम और मर्यादाएं इसके अन्तर्गत है। आचार-नियमों के दूसरे रूप जैसे असत्य भाषण नहीं करना, चोरी नहीं करना आदि तो जनसाधारण को सुलभ रूपसे समझाने के लिये भिन्न-भिन्न नामों से कहे जाते हैं, वस्तुतः वे सभी अहिंसा के ही विभिन्न पक्ष हैं। जैन-दर्शन में अहिंसा वह आधार वाक्य है जिसमें बाचार के सभी नियम निर्गमित होते हैं। भगवती आराघना में कहा गया है-अहिंसा सब बाममों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ (उत्पत्ति स्थान) है।
बौद्धधर्म में महिला का स्वान-बीड-दर्शन के दश शीलों में अहिंसा का स्थान प्रथम है। चतुःशतक में कहा है कि तथागत ने संक्षेप में केवल 'अहिंसा' इन अक्षरों में धर्म का वर्णन किया है। बुद्ध ने हिसा को अनार्य कर्म कहा है। वे कहते हैं, जो प्राणियों की हिंसा करता है, वह कार्य नहीं होता, सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का पालन करने वाला ही मार्य कहा जाता है।
बुद्ध हिंसा एवं युद्ध के नीतिशास्त्र के घोर विरोधी है । धम्मपद में कहा गया हैविजय से वैर उत्पन्न होता है। पराजित दुःखी होता है। जो जय-पराजय को छोड़ १. प्रश्नव्याकरणसूत्र, २१२२१२२
२. आचारांग, १।४।१।१२७ ३. सूत्रकृतांग, १।४।१०
४. दशवकालिक, ६९ ५. भक्तपरिक्षा, ९१
६. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ४२ ७. भगवती-आराधना, ७९.
८. चतुःशतक, २९८ ९. धम्मपद, २७.