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सामाजिक नैतिकता मेनोप तय : मोहला. मनापह और मपरिषह प्रतिफलित होने वाला अपरिग्रह का सिद्धान्त सामाजिक एवं आर्थिक अहिंसा कहा जा सकता है।
यदि माधना के तीन अंग-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और गम्यकचारित्र के व्यावहारिक पक्षों की दृष्टि में विचार किया जाय तो अनासक्ति मम्यग्दर्शन का, अनेकान्त ( अनार । सम्पज्ञान का और अहिमा सम्पक चारित्र का प्रतिनिधित्व करते है। दर्शन का सम्बन्ध पनि में है, ज्ञान का सम्बन्ध विचार से है और चारित्र का कम से है । अतः वृति में अनामक्ति. विनार में अनाग्रह और आचरण में अहिंसा यही जन आचार दर्शन के रत्नत्रय का व्यावहारिक स्वरूप है जिन्हें हम सामाजिक के गन्दर्भ में क्रमशः अपरिग्रह. अनेकान्त ( अनाग्रह ) और हिसा के नाम से जानत है । अहिसा, अनेकान्त और अपरिग्रह जब सामाजिक जीवन से सम्बन्धित होते है, तब वं सम्यक् आचरण के ही अग कहं जान है । दूमर, जब आचरण से हमारा तात्पर्य कायिक. वाचिक और मानसिक तीनों प्रकार के काम हो, तो हिसा, अनेकान्त और अपरिग्रह का ममावंग नम्पक आचरण में हो जाता है। गम्य आचरण एक प्रकार से जीवन गुद्धि का प्रयास है, अतः मानमिक कर्मा को शुद्धि के लिए अनागक्ति (अपग्रिह), वानिक कमों का शुद्धि के लिए अनेकान्त (अनाग्रह) और कायिक कर्मों को शुद्धि के लिए अहिंसा के पालन का निर्देश किया गया है। इस प्रकार जन जीवन-दर्शन का मार इन्ही तीन मिद्धान्तों में निहित है। जैनधर्म की परिभाषा करने वाला यह श्लोक सर्वाधिक प्रचलित ही है
स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन पक्षपातो न विद्यते ।
नास्त्यन्यं पीड़न किंचित् जैनधर्मः स उच्यते ॥ मच्चा जैम वही है जो पक्षात ( ममन्त्र ) मे रहित है, अनाग्रही और अहिंमक है । यहाँ हमें इस सम्बन्ध में भी स्पष्ट रूप में जान लेना चाहिए कि जिस प्रकार आत्मा या चेनना के तीन पक्ष जान, दर्शन और चारित्र आध्यात्मिक पूर्णता की दिगा में एक दूमसे में अलग-अलग नहीं रहने है, उमी प्रकार अहिंमा, अनाग्रह ( अनेकान्त ) और अपरिग्रह भी मामाजिक ममता की स्थापना के प्रयाम के रूप में एक दूसरे से अलग नहीं रहतं । जैम-जैसे वे पूर्णता की ओर बढ़नं है, वैसे-वैमे एक दूसरे के माथ ममन्वित होते जाने हैं।
अहिंसा जनधर्म में अहिंसा का स्थान
अहिंसा जैन आचार-दर्शन का प्राण है। अहिंमा वह धरी है जिस पर ममग्र जैन आचार-विवि घूमती है । जैनागमों में अहिंमा को भगवती कहा गया है । प्रश्नव्याकरणमूत्र में कहा गया है कि भयभीतों को जैसे शरण, पक्षियों को जैसे गगन, तपितों को जैसे