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________________ सम्पादकीय सत सत्पथ के केवल पथिक ही नहीं, अपितु ससार को सत्पथ प्रदर्शित करने वाले प्रकाश स्तम्भ और भव-सागर के तैराक होने के साथ-साथ तारक भी होते हैं । युग-युगान्तरो से मानव समाज सत समाज का ऋणी रहता आया है, आज भी है और आने वाले कल से लेकर अनन्त काल के पश्चात ग्राने वाले कल्पनातीत अनागत तक वह सदा-सर्वदा निष्कारण करुणाकर, करुणावतार संतो का ऋणी रहेगा । क्योकि असख्य अभिशापो से श्रोतप्रोत इस संसार मे केवल एक संत समाज ही वास्तव मे वरदान स्वरूप है | सती के प्रमृतमय ग्रनमोल अमर बोल वसुन्धरा के करण करण को गुजाते हुए, अनन्त आकाश को प्रतिध्वनित करते हुए सतप्त मानव मन को ग्रात्मानुभूति के प्रथाह आनन्द सागर की सुखद हिलोरो के झूलो पर भुला कर अनिर्वचनीय शान्ति प्रदान करते हैं, यथा सुवण स्वस्स हु पव्वया भवे, सिया हु कैलाससमा अणतया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि, इच्छा हु आगाससमा अणतया ॥ अप्पा चैव दमेयत्वो, अप्पा हु खलु दुद्दयो | अप्पादतो सुही होइ, अस्सि लोए परत्थ य ॥ श्रयतां धर्म सर्वस्व, श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । श्रात्मन प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत् ॥ क्रोध, लोभ मद, मोह, ईर्ष्या और द्वेप से जलती हुई जाज्वल्यमान जगत की भट्टी मे दग्ध होते हुए मानव समाज के करन्ध्रो मे यदि संतो के उपर्युक्त वचनामृत नही पहुँचते तो श्राज मानव समाज की कितनी भीपण, दारुण एव दयनीय स्थिति होती, इसकी हम कल्पना भी नही कर सकते । ऐसी स्थिति मे यह निर्विवाद सत्य है कि सन्त मानव समाज के सच्चे शुभचितक, सुहृद, परम उपकारी, पथ प्रदर्शक श्रीर कर्णधार हैं । इनके पद चिन्ह और पतित पावन जीवन चरित दिग्भ्रान्त मानव के लिए प्र ेरणा स्रोत और ध्रुव तारे की तरह दिशासूचक ज्योतिपुञ्ज प्रदीप है ।
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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