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श्रचायं चरितावली
द्वारा नये दृष्टि समझाने पर भी समाधान नही हुआ । तव गुरु ने संघ के
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समक्ष इस बात को प्रकट किया, और वह निन्हव समझा जाने लगा ||३४||
॥ लावणी ॥
कंपिलपुर में विचरत जब वह श्राया, सुकपाल ने पकड़ मारनां च्हाया । जाना हमने तुम श्रावक हो प्रभु के, बोले रक्षक साधु थे वे विभु के ।
संबोधित हो बने सुहृष्टीधारी ॥ लेकर० ||३५|| अर्थ. - अश्वमित्र आदि मुनि एकं समय विचरते हुए कपिलपुर 'पहुँचे । वहा की सु कपाल - चुगीवाला, जिन शासन का भक्त था । अश्वमित्र 'के श्रद्धा परिवर्तन का हाल जानकर उसने सोचा, इन मुनियों को किसी प्रकार से बोध देकर मार्गारूढ करना चाहिये । उसने एक युक्ति निकाली रसेवक पुरुको आदेश देकर साधुग्रो को हस्तिकटक• मर्दन से शिक्षा "देना चाहा । 'साधु यह देख कर वोले, "भाई । हम तो "तुमको श्रावक समते थे । तुम सांधुओ के साथ ऐसा व्यवहार कैसे करते हो ?" रक्षक वोला -- ' महाराज | पता नही, तुम लोग साधु के वेश में कोई गुप्तचर हो । रक्षक की वात से साधु समझ गये, उनको अपनी भूल मालूम हुई और पुनः जिन-मार्ग पर स्थिर हो गये ||३५||
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॥ लावणी ॥ -
पौत्र दूसरा गंग नाम से जानो, श्रार्य महागिरि दादागुरु पहचानो । उलुकातीर नगर किया वर्षा वासो, गुरुदर्शन को गये मार्ग वहि मासो ।
नीचे शीतल शिर पैताप करारी ॥ लेकर० ||३६||
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अर्थ:- महागिरि का दूसरा पौत्र - शिष्य गग मुनि था । श्रार्य महागिरि उसके दादा गुरु थे । गुरु शिष्य ने उलूकातीर नगर मे चातुर्मास किया था । नगर और गॉव के बीच नदी थी । कार्तिकी चातुर्मीसी पर क्षमापना