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________________ प्राचार्य चरितावली भव्यजनों को दीक्षित कर अन्त मे इनकी इच्छा कठोर साधना की हुई । जिन कल्प का विच्छेद होने पर भी वे गच्छ मे रह कर एकल विहार की साधना करने लगे। वे वाचना मात्र करते, और गच्छ की शेप व्यवस्था आर्य सुहस्ती सभालते । सुहस्ती विद्वान् और योग्य होकर भी महागिरि का पूर्ण सम्मान रखते थे। कहा जाता है कि सहस्ती को देख कर सप्रति राजा को वोध हुआ और वह उनकी प्रेम से सेवा करने लगा । इसी वात को आगे पद्य मे इस प्रकार कहा गया है ।। ३२ ।। लावणी ॥ स्थूलभद्र के पट्ट ( पर ) महागिरि राजे, चरगसाधना जिनकल्पिक सम साझ । आर्य सुहस्ती संप्रति के मन भाये, सुभट भेज कर धर्म प्रचार कराये । ... दोनो प्रतिभाशील धर्मविस्तारी । लेकर० ॥ ३३ ॥ अर्थः- स्थूलभद्र के पीछे आर्य . महागिरि आचार्य पद पर आसीन हुए और जिनकल्प के समान प्राचार पालने लगे । आर्य सुहस्ती ने जव सप्रति को उपदेश दे कर शासन सेवा मे प्रेरित किया तब उसने अनार्य प्रदेश मे भी सुभट भेज कर जैन धर्म का प्रचार करवाया। कहा जाता है कि सुभटो ने साधु वेष मे जा कर लोगो को साधु धर्म के प्राचार से परिचित किया। दोनो प्राचार्य प्रतिभाशाली थे, इन्होने शासन की बड़ी सेवा की ।। ३३ ।। लावरणी।। . . . . . वोरकाल दो बीस भ्रान्ति इक छाई, महागिरि का पौत्र अश्वमित्र ताई। पूर्व पाठ में उसका मन बदलाया, । नय दृष्टि पाकर भी नहिं पलटाया। गुरु ने भी तब प्रकट बात कही सारी ॥ लेकर० ॥३४॥ __ . . अर्थः--वीर सवत् दो सौ वीस के समय महागिरि के पौत्र अश्वमित्र को भ्रान्ति हो गई । पूर्व की वाचना करते हुए उसका मन वदला और गुरु
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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