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आचार्य चरितावली
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अर्थः-छः मास के वाद जब मनक मुनि ने कालधर्म प्राप्त किया, तब शय्यंभव सूरि के नयनो मे अथ वह आये । यशोभद्र आदि शिष्यो को यह देख कर ग्राश्चर्य हुया । उन्होने गुरुदेव से विज्ञप्ति कर इसका कारण पूछा, प्रत्युत्तर मे शय्यभव ने सारी हकीकत बतलाई जिसे सुनकर शिष्यगरण वोले - महाराज ! ग्रापने आज तक हमे यह नहीं बतलाया कि आपका संवध लघु मुनि के साथ पिता-पुत्र रूप से है, अन्यथा हम भी कुछ सेवा कर सकते । गुरु ने कहा, प्राप मेरा पुत्र जानते तो उससे सेवा नही कराते और वह भी अपना कर्त्तव्य भूल जाता । मैंने मनक मुनि के लिये दशवैकालिक सूत्र का पूर्वो से उद्धरण किया है, जिसे अव अलग संग्रह रूप से समाप्त करना चाहता हूँ ||५ शा
॥ स० ॥
दस अध्याय संघ आग्रह थी, पीछे नही समाये ।
धन्य किया उपकार संघ पर, बार बार बलि जायें हो ||गुरु०॥६॥
अर्थ :- संघ और मुनि यशोभद्र के ग्राग्रह से उन्होने दशवैकालिक के अध्ययनो को पूर्वो मे समाप्त नही किये । वह आज भी श्रमण श्रमणी - वर्ग के लिये ग्राचार शिक्षा का स्पष्ट मार्गदर्शन कर रहा है । उन्होने सघ पर वडा उपकार किया, अतः वे हमारे लिये चिरस्मरणीय है | ||६|| मुनि यशोभद्र
॥ लावणी ॥
पाटलीपुर का यशोभद्र था नामी, सुन कर के उपदेश हुआ शिवकामी | भर तरुणाई मे संयम स्वीकारा, चवदह वत्सर ज्ञान गुरू से धारा । गुरु आज्ञा पालन की मन
मे धारी ॥ लेकर ॥१६॥ अर्थ :- गय्यभव के पश्चात् ग्राचार्य यशोभद्र हुए । "ये पाटलीपुर के प्रसिद्ध ब्राह्मण पंडित थे 1 शय्यभव सूरि का उपदेश पाकर वे विरक्त हो गये और बावीस वर्ष की पू यौवन अवस्था मे सयम धारण कर चौदह