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आचार्य चरितावली
अव कोई नहीं चाहता । परस्पर की निन्दा और वादविवाद का वातावरण बदल गया । सव एक दूसरे से मिलने एव एक साथ व्याख्यान की वात करने लगे, पर अन्तर मे सम्प्रदायवृद्धि और अपनी प्रमुखता को सबसे ऊपर और सबसे पागे रखने का कपट भाव नही गया । यदि सरल एव शुद्ध भाव से काम किया जाय तो जिन शासन का हित हो सकता है ॥१६॥
॥ लावणी ॥ संघ शक्ति का सब ही नाद बजावे, संयम बल से पीछे कदम हटावे । पाउम्बर को बुरा कहत अपनावे, राजनीति को धर्म मार्ग मे लावे ।
मुनियो ने भी मानव-हित को धारी ॥ लेकर० ॥१६६।। अर्थ:-आज का यह सामूहिक नारा "संघे शक्ति" यानि संघ में ही शक्ति है, सभी की ओर से बुलन्द किया जा रहा है पर सयम-वल की खामी को मिटाना नहीं चाहते, कमजोरियो को समन्वय से चलाना चाहते है, प्राडम्बर को बुग बताकर भी नित नये रूप मे पाडम्बर अपनाते जा रहे है। सच बात तो यह है कि धर्म मार्ग मे भी आज राजनीति प्रवेश पा रही है। जैन साधु जो किसी समय प्रवृत्तिमार्ग से दूर रहने मे ही श्रेय मानते थे, वे भी आज मानवहित और राष्ट्रसुधार के नाम से राजनीति के नेताओ को प्रसन्न करने मे लगे है ॥१६६।।
लावरगी॥ बुद्धिवाद से भेद मिटे नही सारे, समतावाद ही जग का संकट टारे। अनेक में जो एक तत्व पहचाने, एक धर्म का विविध रूप जग जाने। अनेकान्त सम्यक् जन जन सुखकारी लेिकर०॥२०॥