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प्राचार्य चरितावली
का है अतः हमे अपना परिचय साधुमार्गो सम्प्रदाय या बाबीस सप्रदाय के नाम से ही देना चाहिये।
सभी सघाडे दया मे धर्म और गुण पूजा को मान्य करते थे देव गुरु और धर्म विषयक सवकी श्रद्धा भी समान थी। केवल प्रान्तभेद नोर गुरु भक्ति से अलग अलग मुखियाग्रो के नाम से वावीस सघाडे कहे जाने लगे। अ तर मे सवका एक दूसरे के साथ पूर्ण वात्सल्य भाव था ।।१६५।।
लादरणी। बावीस परिषह जीतन हित मुनियोधा, करे कर्म से युद्ध टाल कर क्रोधा । संप्रदाय बावीस कहाई जब से, मख्य पांच ये शाखाए हई तब से
चरणबिहारी बड़े धर्म उपकारी ॥लेकर० ॥१६६।। अर्थ-वावीस परिषहो को जीतने के लिये मुनीश्वर रूपी योद्धा क्रोध पर विजय प्राप्त कर के कर्मों के साथ युद्ध करते है । जव से इन सतो की मण्डली को वावीस सप्रदाय कहा जाने लगा, तभी से इनकी मुख्य पाच शाखाए चल रही थी। सभी सन चरण विहारी और जिन धर्म के सच्चे प्रचारक थे ॥१६६॥
॥ लावणी ॥ अष्टादश शत दशम वर्ष शुभ आया, पचेश्वर में मुनि जन प्रेल मिलाया । प्रमुख संत मिल मर्यादा बधवायी, मास मधु को शुक्ल पंचमी आई। जिन शासन के हपित थे नर नारी ॥ लेकर० ॥१६७।। एक वर्ष के बाद मेड़ता नगरी, पूज्य अमर, भूधर, कान्हा मुनिवर री। श्रमरण सिह सबने सबंध बढ़ाये, दीप्त हुए गरण सब ही पुण्य सवाये।