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________________ आचार्य चरितावली 11 लावणी ।। पूज्य रघु का शिप्य भोज्म हठ मतवाला, अष्टादश पनरे में संशय डाला । रघुपत ने दो वर्ष तलक समझाया, सतरे मे फिर गरण से अलग कराया । दया दान में उनकी मत थो न्यारी लेकर०॥१६४॥ अर्थः- पूज्य रघुनाथजी का एक शिप्य भीखमजी वडा हठी था। वह एक बार जो वात पकड लेता उसे हर तरह से उपयुक्त ठहराने का प्रयत्न करता। स० १८१५ मे उन्हे जैन सिद्धान्त के कुछ वचनो मे शंका हुई। पूज्य रघुनाथजी ने उन्हे दो वर्ष तक सही सिद्धान्त समझाने का एवं उनकी शंकाओ का समाधान करने का प्रयत्न किया परन्तु उन्होने अपनी हठ नही छोडी। __ फलस्वरूप पूज्य रघुनाथजी ने स० १८१७ मे वाडी गाव मे उनको अपने गच्छ से अलग कर दिया। पूज्य रघुनाथजी जीव बचाने और अनुकम्पा, दान मे पुण्य मानते थे, किन्तु भीखमजी के विचार इससे भिन्न थे। इन्ही भीखमजी द्वारा श्वेताम्बर तेरा पथ सम्प्रदाय प्रचलित हुया ||१६४।। || लावणी ।। वीस और दो शिष्य बड़े धो वाले, कहन लगे जन वावीस टोला वाले । दया और गुरण पूजा सब कोई माने, देश और गुरुभेद से अलग पिछाने । अन्तर मे वत्सलता सव मे भारी ले कर०॥१६॥ अर्थः-पूज्य धर्मदामजी महाराज के वावीस प्रमुख शिष्य हुए जो वडे वद्धिमान और प्रतिभाशाली थे। उनके २२ गणो को विरोधी लोग तिरस्कार भाव से वावीस टोला नाम से कहने लगे । पर सती ने जान भाव से सोचा कि साधुयो का मार्ग अनुकूल-प्रतिकूल बावीस परीपहो को जीतने
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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