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हिन्दी के नाटककार
क्षत-विक्षत, चट्टानों से छिल - छिलकर पगों में पड़े छालों से ग्राहत, श्रातपताप से तृषातुर सूखे कण्ठ, निर्बल तन से एक पथिक पर्वत के चरणों पर बैठा है और पर्वत शिखर से एक तीव्र करना अपनी गोद में शीतल मधुर
लिये जैसे उसकी ओर दौड़ा श्रा रहा है । ज्यों ही वह पास श्राता है, श्राकुल होकर वह यात्री पानी पीने को नीचे झुकता है, झरना सूख जाता है 1 दार्शनिक विचार धारा
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स्वस्थ मिश्रण ही नहीं भी नये सिद्धान्त सामने
प्रसादजी ने आर्य तथा बौद्ध दर्शनों का गहन अध्ययन किया था । उन्होंने इन दोनों दर्शनों के सिद्धान्तों का मंथन करके केवल नये दर्शन का स्वरूप ही स्थापित नहीं किया, दोनों का सार ले किया, बल्कि मानव-जीवन का गहन अध्ययन करके रखे। जीवन को हृदय और मस्तिष्क की पुतलियों से पढ़ा और उसका दार्शनिक स्वरूप अपने नाटकों में उपस्थित किया। प्रसाद जी जीवन के महान् दृष्टा थे— जीवन को उन्होंने समझा था - उसके तीखे-मीठे रस को भी उन्होंने शिव के समान पान किया था । जीवन के चिप को पोकर उन्होंने मानव जीवन को सुधा प्रदान की थी - जीवन की यथार्थता के रूप में ।
प्रसादजी की दार्शनिकता का प्रभाव उनके अनेक पात्रों में पाया जाता है । उनके नाटक भी उस युग के हैं, जिस युग में बौद्ध और ब्राह्मण-दर्शन का मिलन-संघर्ष हो रहा था । इसलिए उनके प्रायः प्रत्येक नाटक में प्रमुख पात्र दार्शनिक के रूप में जीवन की गुत्थियाँ सुलझाते हुए पाये जाते हैं । 'अजात शत्रु ' ' में बिसार एक वैराग्यपूर्ण हृदय से ही विश्व-जीवन का रस-पान करता है । गौतम जीवन की दो प्रतियों के बीच 'मध्यमप्रतिपदा' की पगडण्डी खोजते हुए देखे जाते हैं । राग और विराग के मध्य गौतम की करुणा की धारा बहती है । 'जनमेजय का नागयज्ञ' में व्यास भी एक दार्शनिक जीवनोपदेशक के रूप में आते हैं । जनमेजय भी दार्शनिक भाग्यवादी और कर्मयोगी के रूप में आता है । स्कन्दगुप्त भी वैरागपूर्ण राग लिये अधिकार का भोग करता देखा जाता है--'" अधिकार सुख कितना मादक और सारहीन ह । " और "वैभव की जितनी कड़िया टूटती है, उतना ही मनुष्य बंधनों से छूटता है और तुम्हारी ओर अग्रसर होता है।"
'चन्द्रगुप्त' में दाण्ड्यायन और चाणक्य भी गहरे दार्शनिक है—दोनों ब्राह्मण दर्शन के आचार्य और प्रचारक हैं दाख्यायन विश्व के श्राकर्षण से उदासीन उस परम ज्योति के आभास की जब तब चर्चा किया करता है----