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जयशंकर 'प्रसाद'
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प्रेम के इस अतृप्त रूप को उपस्थित करने में प्रसाद द्वितीय हैं । कल्याणी और चन्द्रगुप्त, देवसेना और स्कन्दगुप्त, सुवासिनी और चाणक्य का प्रेम इसी प्रकार का है । विजया के प्रेम में भी भीषण अतृप्ति ही है । इस बात को कितने हृदय सहन कर सकने में समर्थ होते हैं - बहुत कम ! कल्याणी श्रात्म-हत्या करती है । मालविका अपने प्रेमी के लिए प्राण दे डालती है । कल्याणी और मालविका दोनों ही अपने दिव्य और दर्द भरे बलिदान से नाटक में एक करुण और वेदना-विह्वल उच्छ्वास छोड़ जाती हैं
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इस अतृप्त प्रेम का विकास देव सेना और स्कन्दगुप्त के चरित्रों में पूर्ण पराकाष्ठा को पहुँच गया है ।
"हृदय की कोमल कल्पना, सो जा ! जीवन में जिसकी सम्भावना नहीं, जिसे द्वार पर आये हुए लौटा दिया था, उसके लिए पुकार मचाना क्या तेरे लिए कोई अच्छी बात है ? आज जीवन के भावी सुख, आशा और प्राकांक्षासबसे मैं विदा लेती हूँ !
इन शब्दों में जैसे देवसेना की जीवन-भर की श्राकांक्षा चीत्कार कर रही है । अपने द्वारा पाले गए, अपने आँसुओं से सींचे गए अपने मधु से ही पोसे गए प्रेम को अपने ही निर्दय पैरों से कुचल देना - जीवन की कितनी बड़ी निष्ठुरता है ।
स्कन्दगुप्त कहता है—“जीवन के शेष दिन, कर्म के अवसाद में बचे हुए हम दुखी लोग एक दूसरे का मुँह देखकर काट लेंगे । इस नन्दन की वसन्तश्री इस अमरावती की शची, इस स्वर्ग की लक्ष्मी तुम चली जाओ - ऐसा मै किस मुख से कहूँ । और किस वज्र कठोर हृदय से तुम्हें रोकूं ?
देव सेना | देव सेना । तुम जाओ ।"
"हत भाग्य स्कन्दगुप्त अकेला स्कन्द, प्रोह ।"
देव सेना बोली- -" कष्ट हृदय की कसौटी है, तपस्या अग्नि है । सम्राट् यदि इतना भी न कर सके तो क्या ! सब क्षणिक सुखों का अंत है । जिसमें सुखों का अंत न हो, इसलिए सुख करना ही न चाहिए। मेरे इस जीवन के देवता ! और उस जीवन के प्राप्य ! क्षमा ।"
इस अंतिम दृश्य से जो पाठक या दर्शक के मन पर करुणा की एक बदली घिर जाती है, जिसमें कामना की बिजली तड़प जाती है, वेदना के सिसक पड़ते हैं । अतृप्त प्रेम का यह महान् श्राध्यात्मिक रूप है । प्रसाद के अतृप्त प्रेम का ठीक यह रूप है— दिन-भर की यात्रा से