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जयशंकर 'प्रसाद'
"भूमा का सुख और उसकी महत्ता का जिसको आभास-मात्र हो जाता है, उसको ये नश्वर चमकीले प्रदर्शन अभिभूत नहीं कर सकते ।” चाणक्य भी विश्व की निस्सारता का साक्षी है-"समझदारी पाने पर यौवन चला जाता है, जब तक माला गूथी जाती है, फूल मुरझा जाते हैं।" देवसेना भी अपने घायल उच्छ्वास में विश्व के प्रति वैराग्यपूर्ण दृष्टिकोण उपस्थित करती है“सब क्षणिक सुखों का अन्त है। जिसमें सुखों का अन्त न हो, इसलिए सुख करना ही न चाहिए।"
जीवन के प्रति यह उदासीन विरागपूर्ण दृष्टिकोण मनुष्य को भाग्यवादी बना देता है । लगता है, लेखक को प्रकृति या किसी अन्य शक्ति के सर्वोपरि स्वेच्छापूर्ण स्वाधीन चक्र-संचालन में आस्था अवश्य थी। उसके प्रत्येक नाटक में नियति का नियंत्रण मानते हुए पात्र पाये जाते हैं, यद्यपि कोई भी पात्र देव या भाग्य में विश्वास करके निष्क्रिय नहीं बना।।
राज्यश्री कहती है- "पर जीवन ! प्राह ! जितनी सॉस चलती हैं. वे तो चलकर ही रुकेंगी।" 'अजातशत्रु' में बिंबसार भी भाग्य की प्रधानता स्वीकार करता है-- 'प्रकृति उसे (मनुष्य को) अंधकार की गुफा में ले जाकर उसको शांतिमय, रहस्यपूर्ण भाग्य का चिट्ठा समझाने का प्रयत्न करती है, किन्तु वह कब मानता है।" जनमेजय भी कहता है"किन्तु मनुष्य प्रकृति का अनुचर और नियति का दास है। क्या वह कर्म करने में स्वतंत्र है ?" ये सभी पात्र मनुष्य के ऊपर प्रकृति, नियति या किसी नियंत्रण शक्ति का विश्वास करते हैं, मनुष्य पूर्ण स्वतन्त्र नहीं है। . पर इस नियतिवाद का बहुत विशद, सर्वोपरि और शक्तिशाली रूप 'स्कन्दगुप्त' और 'चन्द्रगुप्त' में आया है। इन दोनों नाटकों में कर्म का तीव्र रूप प्रकट है, प्रयत्न और सशक्तता का इन दोनों नाटकों में लेखक ने बड़ा ही विशद रूप उपस्थित किया है। इनमें भी नियति की पुकार करना लेखक की गहन आस्था प्रकट करता है। स्कन्द गुप्त कहता है-"चेतना कहती है कि तू राजा है और अन्तर में जैसे कोई कहता है कि तू खिलौना है-उसी खिलाडी बटपत्रशायी बालक के हाथों का खिलोना है।"
'चन्द्रगुप्त' में-नियति सम्राटों से भी प्रबल है (शकटार)। तो नियति कुछ अदृष्ट का सृजन करने जा रही है (सिंहरण )। वर्तमान भारत की नियति मेरे हृदय पर जलद-पटल मे बिजली के समान नाच उठी है (चाणक्य)। नियति खेल न खेलना (चन्द्रगुप्त) नियति सुन्दरी की भावों में बल पड़ने लगे हैं। (चाणक्य ) स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त, सिंहरण-जैसे वीर