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________________ आलोक हमारे सामने उपस्थित करते हैं। रस या उद्देश्य की दृष्टि से अद्भुत या हास्य हमें मिल जाता है। हमारा विश्वास है कि ऐसी-ऐसी अनेक नाटकीय घटनाए मानव-जीवन में पहले आई,नृत्य इनके पश्चात्-भले ही नृत्य से नाटक को विकसित करके वर्तमान रूप तक पहुँचाने में सहायता मिली हो, पर मौलिक रूप में नाटक मनुष्य के जीवन में पहले प्राया, नृत्य बाद में । सामाजिक रूप मे नृत्य विकसित हो गया, नाटक बहुत बाद में हुया । नाटक का आदि रूप आज भी जंगली जीवन में देखा जा सकता है। जंगली जीवन में प्रचलित नृत्य नाटक का ही आदि रूप है। जंगलो नाचों में नृत्य के तत्वों की अपेक्षा नाटकीय तत्त्व ही अधिक मिलेंगे। जंगली पशुओं को खाल, सींग, हड्डियाँ, पक्षियों के पंख, समुद्री कौड़ियाँ, घोंघे अादि धारण करके विलक्षण वेश बना,शिकार की तैयारी, पशुओं से युद्ध, पारस्परिक आक्रमण, अभिमान, पलायन श्रादि उनके नाच के मुख्य विषय होते हैं। इनमें अपेक्षाकृत नाटकीय तत्त्व अधिक हैं। नाटक का मूल हमारी मानसिक प्रवृत्तियों में है। तभी तो हम जंगली असभ्य जीवन से लेकर सभ्य वैज्ञानिक जीवन तक में नाटक का प्रादुर्भाव और विकास पाते हैं। नाटक का अविकसित आदि रूप भी और अत्यन्त विकामित अाधुनिक स्वरूप भी हमारी प्राकृतिक प्रवृतियों का ही साकार रूप है। अधिक-से-अधिक सभ्य बनकर विज्ञान-प्रधान जीवन हो जाने पर भी वे मानसिक मौलिक प्रवृत्तियाँ अपरिवर्तित रहेंगी। अपनी शक्ति, अधिकार, उपभोग और आनन्द-सीमा बढ़ाना मानव की मौलिक प्रवृत्ति है। मनुष्य जो है उससे अधिक होना चाहता है। जो वह नहीं है, वह बनना चाहता है। इसे विराट बनने या आत्म-विस्तार की प्रवृत्ति कहते है। मनुष्य असीम की श्रोर पग बढ़ाने का महत्त्वाकाक्षापूर्ण प्रयत्न करता रहता है। यह विराट बनने की प्रवृत्ति है । शंकराचार्य का अद्वतवाद और कृष्ण का विराट रूप इसी प्रवृत्ति की दार्शनिक व्याख्या है। इसी प्रवृत्ति ने नाटक को जन्म दिया है। आदि जंगली जीवन में मनुष्य अपने से इतर प्राणियों-शेर, बाघ, हाथी, मृग, बैल, बकरा, भेड़िया-का रूप धारण करके अपनी प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करता रहा। कुछ समय हो जाने पर वह कल्पित भूत-प्रेत, देवी-देवताओं का रूप धारण करके आत्म-विस्तार की अभिलापा की प्यास बुझाता रहा। सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन का प्रारम्भ होने पर वीर योद्धा नों, महापुरुषों, राजा-महाराजाओं आदि का रूप धारण करके अानन्द पाता रहा। इस अात्म-विस्तार की प्रवृत्ति, या जो नहीं है
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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