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________________ हिन्दी नाटककार वह बनने की इच्छा का रूप, हम बालकों में देख सकते हैं। कई छोटी-छोटी बालिकाओं को हमने मूछे लगाकर और बालकों को लड़की का वेश धारण करके अभिनय करते देखा है। ___ अात्म-विस्तार की प्रवृत्ति को सन्तुष्ट करने के लिए, हम वह बनते हैं, जो हम नहीं है। तब हमें उस व्यक्ति-जैसा ही व्यवहार करना पड़ता है, वैसी ही वेश-भूषा धारण करनी पड़ती है, उसी प्रकार बोलना-चालना भी पड़ता है। हम पूर्ण रूप से अनुकरण करने का प्रयत्न करते हैं । बिना नकल या अनुकरण किये, हम वैसे नहीं मालूम हो सकते। 'विराट' की कामना या श्रात्म-विस्तार की प्रवृत्ति ही अनुकरण की प्रवृत्ति को जन्म देती है। यह प्रवृत्ति स्वतन्त्र भी मानी जाती है। कई छोटे-छोटे बालक अपने बूढ़े बाबा की तरह नाक पर चश्मा रखकर उनकी तरह पगड़ी लपेट कर उनका हुक्का गुड़गुड़ाने का अभिनय करते देखे गए हैं और यदि अचानक माँ ने देख लिया और पूछा, 'क्यों रे कुक्कू, यह क्या ?" तो उत्तर मिलता है, "मैं कुक्कू नहीं हूँ, मैं तो बाबाजी हूँ।" अनुकरण की प्रवृत्ति में भी नाटक का मूल है। अभिनेता गण जब नायक, नायिका आदि का रूप धारण करके अभिनय करते हैं,वह अनुकरण नाटक को जन्म देने वाली तीसरी प्रवृत्ति है आत्म-प्रकाशन की मनुष्य न असफलता, निराशा, वेदना, वियोग आदि का भार सह सकता है और न सफलता, संयोग, आशा, आनन्द आदि की गुदगुदी को हो संभाल पाता है। दुख कहने से घटता और सुख बढ़ता है। मनुष्य अपने दुःख-सुख दूसरों पर प्रकट करना चाहता है। आत्माभिव्यक्ति या आत्म-प्रकाशन की प्रवृत्ति उसे ऐसा करने को विवश करती है । दुःख-सुख के आवेग में मनुष्य बड़ा भावुक बन जाता है । भावावेश में वाणी वाचाल बनेगी ही-उसे अलौकिक अभिव्यंजना-शक्ति मिलेगी। नाटक के संवाद और अभिनय-तत्त्व का इसी से विशेष विकास हो जायगा। ____ नाटक को जन्म देने वाली सर्वप्रथम प्रवृत्ति है प्रात्म-विस्तार या विराट बनने की । इसी से प्रेरित होकर मनुष्य अनुकरण करता है । इसी से प्रेरित होकर आत्म-प्रकाशन या आत्माभिव्यक्ति की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। अपना दुःख-सुख, आशा-निराशा अन्यों पर प्रकट करके भी मनप्य श्रात्म-विस्तार ही करता है । सुख-दुःख दोनों के भोगने वालों की संख्या बढ़ जाती है। इसलिए नाटक को जन्म देने वाली प्रमुख प्रवृत्ति प्रात्म-विस्तार की ही मानी जायगी। अनकरण की नहीं।
SR No.010195
Book TitleHindi Natakkar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaynath
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1952
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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