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हिन्दी नाटककार
नाटक का जन्म
नाटक उतना ही प्राचीन है, जितना मानव-जीवन । धरातल पर मानव का अवतरण भी एक नाटकीय घटना ही समझिये । भारतीय ग्रास्तिक दर्शन के अनुसार परमात्मा ने पृथ्वी की रचना करके एक दिन अनेक युवक और युवतियों को जन्म दे दिया। विकासवाद के अनुसार वनमानुस विकसित होते-होते मनुष्य बन गया। दोनों ही विचारानुसार मानव का जन्म कौतूहलपूर्ण नाटकीय घटना है। मानव-जन्म के साथ ही नाटक का उदय हुआ। निश्चय ही 'विकसित या लिखित रूप में नहीं। पर वह अपने आदि मौलिक रूप में मानव के साथ ही अवतरित हो गया था। मानव-जीवन-विकास के साथ ही कदम-से-कदम मिलाते हुए नाटक भी विकसित होता गया और आज वह अत्यन्त उन्नत रूप में हमें प्राप्त है।
पुरातन जंगली अहेरी जीवन में नाटक के मौलिक रूप की हम कल्पना कर सकते हैं। एक अहेरी, दिन-भर के परिश्रम से थका, अपनी गुफा में बैठा मांस भून रहा है। सहसा बाव के समान भयंकर और सींगधारी विलक्षण पशु गुफा के भीतर घुसकर वन-कपाती दहाड़ मारकर अहेरी पर झपटना है। शीघ्रता से सँभल अहेरी अपने पत्थर के शस्त्र उठाता या तीर-कमान संभालना है और ज्यों ही कमान पर तीर तानता है कि वह विचित्र पशु नालियाँ य जाकर खिलखिलाकर हँस पड़ता है। अहेरी भौं बक्का-मा नाकता है और वह पशु 'हो-हो' करते हुए कहता है,अहा डर गए सरदार ! अहेरी को तय मान्नुम होता है कि यह वह पड़ौसी युवक है,जो पास ही एक गुफा में रहता है । यह घटना एक कल्पना-मात्र है, इसमें सन्देह नहीं; पर मानव के श्रमभ्य जंगली जीवन में न जाने ऐसी कितनी नाटकीय घटनाए होती रही होगी। कौतूहल पूर्ण अनाशितता, जो नाटक की प्राण है, सभ्य जीवन से अधिक जंगली जीवन में मिलेगी।
उपरोक्त कल्पित घटना में नाटक के सभी तत्त्व अपने प्रादि रूप में श्रा जाते हैं। बाघ का रूप धरने वाले उस युवक का गुफा में सहमा प्रवेश कौतूहलपूर्ण घटना है। यह कथावस्तु का ही एक रूप है। घटनाए ही कथा-माला की कलियाँ हैं-कथा की शृङ्खला की कड़ियाँ हैं। युवक और अहेरी दो पात्र हैं। दोनों के चरित्रों का परिचय भी हमे मिल जाता है । श्रहेरी को भयभीत करने, हसाने खिलखिलाने में अभिनय-तत्त्व पा जाता है। युवक और अहेरी के मुंह से जो शब्द निकलते हैं, वे कथोपकथन या संवाद का श्रादि रूप