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हिन्दी के नाटककार नाटकीय अनुरोध के बिना ही अनेक स्थलों पर प्रकृति-वर्णन भी अनेक नाटकों में है। 'चन्द्रावली' में जमना-वर्णन या बादलों की छटा का वर्णन
और 'सत्य हरिश्चन्द्र' में काशी की शोभा और गंगा का वर्णन केवल वर्णन के लिए ही है:
"नव उज्जल जल-धार हार हीरक-सी सोहति, बिच-बिच छहरति बूद मध्य मुक्ता मनि-पोहति । लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत, जिमि नर गनमन विविध मनोरथ करत मिटावत । सुभग स्वर्ग-सोपान सरसि सबके मन भावत,
दरसन मज्जन पान त्रिबिध भय दूर भगाबत ।" गंगा के लम्बे-चौड़े वर्णन का नाटकीय अनुरोध या अाग्रह से कोई सम्बन्ध नहीं, केवल भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की काशी-भक्ति की ही माँग के कारण यह अनाटकीय प्रसंग नाटक में जोड़ा गया है। प्रेम योगिनी' के तीसरे गर्भीक में सुधाकर द्वारा काशी का जो वर्णन कराया गया है, वह लगभग सात पृष्ठ तक चलता है। न उसका किमी नाटकीय विषय से संबंध है, न उसकी आवश्यकता। __ संस्कृत नाट्य-शास्त्र की सरल कला के साथ भारतेन्दु जी ने पश्चिमी कला का सुन्दर और समयोचित सामंजस्य किया। 'नीलदेवी' का श्यविधान पश्चिमी शैली का है। नाटक की पूर्ण कथा दस दृश्यों में कह दी गई है। 'विद्या सुन्दर' में तीन अंक हैं और तीनों अंकों में क्रमश: चार, तीन और तीन गर्भीक । ये गीक वास्तव में दृश्य के ही पर्याय हैं। यह दृश्य-विधान भी पश्चिमी ढंग का है। इन दोनों नाटकों में न तो नान्दी-पाठ है, न प्रस्तावना और न भरत-वाक्य ही। 'नीलदेवी' 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति' तथा 'भारत जननी' में तो स्वगत का व्यवहार इतना कम हुआ है कि हरिश्चन्द्र की प्रतिभा की प्रशंसा करनी पड़ती है। इस प्रस्वाभाविकता को उन्होंने समझा था, ऐसा मालूम होता है। रचना-क्रम मे 'भारत जननी' और 'नीलदेवी' हैं भी बाद के नाटक ।
भारतीय दृष्टि से चरित्र-चित्रण का महत्व कम है, श्रादर्श और रम. निरूपण का अधिक । पश्चिमी दृष्टि से कार्य-व्यापार, चरित्र-चित्रण, और संघर्ष श्रावश्यक है । भारतेन्दुजी ने दोनों दृष्टियों के अनुसार नाटक लिम्बने का प्रयत्न किया । चन्द्रावली आदर्श प्रेमिका और कृष्ण प्रादर्श प्रम के आधार है। हरिश्चन्द्र आदर्श दानी हैं। नीलदेवी श्रादर्श वीरांगना, अमीर अबुश्शरीफखाँ