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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र शठनायक और सूर्यदेव धीरोदात्त नायक है। भारतीय दृष्टि से रस का साधारणीकरण हो जाता है। रस की अनुभूति या साधारणीकरण तभी होता है जब कोई विशेष पात्र-नायक, शठनायक, नायिका-हमारे रस का पालम्बन बनता है। यह तभी हो सकता है, जब नायक सामाजिकों का श्रादर्श हो । __ वर्तमान जीवन के संघर्ष और चरित्र-वैचित्र्य के चित्र तो भारतेन्दु के नाटकों में मिलने असम्भव हैं, पर उन्होंने अन्तर्द्वन्द्व दिखाने का प्रयास अवश्य किया है । 'सत्य हरिश्चन्द्र' में श्मशान में खड़े हरिश्चन्द्र के हृदय की अवस्था देखी जा सकती है, "इसके पूर्व कि किसी से सामना हो, प्राण त्याग करना ही उत्तम बात है (पेड़ के पास जाकर फाँसी देने योग्य डाली खींचकर ) धर्म ! मैने अपने जाने सब अच्छा ही किया... ... .. मझे क्षमा करना । ( दुपट्टे की फाँसी गले में लगाना चाहता है कि एक साथ चौंककर ) गोविन्द ! गोविन्द ! यह मैंने क्या अधर्म अनर्थ विचारा ! भला मुझ दास को अपने शरीर पर क्या अधिकार था कि मैने प्राण त्याग करना चाहा ।" __ चरित्र के छिपे गुणों को भी 'नील देवी' में प्रकट करने का अच्छा प्रयत्न है। ___"अमीर ( खूब घूर-चूर कर स्वगत)-हाय ! हाय ! इसको देखकर मेरा दिल बिलकुल हाथ से जाता रहा । जिस तरह हो, आज ही इसे काबू में लाना जरूरी है। ( प्रकट ) वल्लाह ! तुम्हारे गाने ने मुझे बे-अख्तियार कर दिया है ।" ___कार्य-व्यापार और गुण-समष्टि की दृष्टि से 'सत्य हरिश्चन्द्र' भारतेन्दु का सर्वश्रेष्ठ नाटक है। द्वितीय नाटक 'नीलदेवी' ही माना जायगा। 'सत्य हरिश्चन्द्र' में कथा तेजी से आगे बढ़ती है और विश्वामित्र बड़ी सशक्त गति से अपने कार्य में प्रवृत्त है। 'नीलदेवी' में भी अन्य नाटकों की अपेक्षा अधिक कार्य-व्यापार के दर्शन होते हैं । कम-से-कम दो घटनाएं तो नाटकीय कौतूहल विस्मय और अनाशितता को बहुत सफलता से प्रकट करती हैंपहली सूर्यदेव के पड़ाव पर अमीर का अाक्रमण और नीलदेवी का गायिका-रूप में अमीर अब्दुश्शरीफ़ का बध करना। ___भारतेन्दु के माटकों के गुणों की अपेक्षा, दोष अधिक स्पष्ट हैं और वे संख्या में भी अधिक हैं । संस्कृत और पश्चिमी नाट्य-कला का सामंजस्य तो उन्होंने अवश्य किया; पर उनमें से किसी को भी समझा बहुत कम । "चन्द्रावली' और 'प्रेम योगिनी' उनकी कला के भद्दपन और असफलता