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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को अपने शरीर पर क्या अधिकार था कि मैंने प्राण त्याग करना चाहा !" ___'सत्य हरिश्चन्द्र' के मरघट का दृश्य चरित्र-चित्रण की दृष्टि से बहुत ऊँची चोटी पर पहुँचा दिखाई देता है।
कला का विकास ___भारतेन्दु से पहले हिन्दी में नाटकों का अभाव था । केवल दो नाटक भारतेन्दु के पूर्व लिखे गए-गिरिधरदास का 'नहुष' और महाराज विश्वनाथ सिंह का 'अानन्द रघुनन्दन' । यद्यपि भारतेन्दु-युग में बँगला-नाटकों की पर्याप्त रचना हो चुकी थी और भारतेन्दु का बंगला-साहित्य से परिचय भी खूब था; तो भी भारतेन्दु जी ने न बँगला-नाट्य-कला हो को पूर्ण रूप से अपनाया और न संस्कृत-नाट्य-कला का ही पूरी तरह पालन किया। कहना चाहिए कि भारतीय नाट्य-शास्त्र के बन्धनों के झमेले में न पड़कर और साथ ही पश्चिमी कला का अंधानुकरण न करके उन्होंने स्वाधीनता से लिखना प्रारम्भ किया और नवीन पथ का निर्माण किया। ___ भारतेन्दु के सामने हिन्दी-नाटक न थे, इसलिए उनकी कला को हम वर्तमान विकसित नाट्य-सिद्धान्तों की कसौटी पर परखना उचित नहीं समझते । उनके नाटकों में अनेक भद्दी भूलें हैं; इसमें सन्देह नहीं; फिर भी उन्होंने नाटक-रचना का द्वार खोला और अपने युग के अनुसार बहुत अच्छे नाटक लिखे । ___ संस्कृत-नाटकों के समान ही भारतेन्दु बाबू के लगभग सभी नाटकों में प्रस्तावना और भरतवाक्य हैं। 'सत्य हरिश्चन्द्र', 'चन्द्रावली', 'वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति', 'विषस्य विषमौषधम्', 'भारत जननी' आदि में नांदी-पाठ, प्रस्तावना, भरत-वाक्य आदि सभी दिये गए हैं। अंकों का विभाजन कहीं-कहीं संस्कृत के समान ही है। 'चन्द्रावली' में प्रस्तावना के बाद विष्कम्भक, जिसमें शुकदेव और नारद चन्द्रावलो के प्रेम के विषय में बातें करते हैं, दिया गया है । 'चन्द्रावली' में दूसरे अंक के बाद अंकावतार भी किया गया है। संस्कृत-नाटकों के समान ही स्वगत की भरमार और पद्यात्मक संवाद भी उनके सभी नाटकों में हैं।
'सत्य हरिश्चन्द्र' के प्रथम अंक में नारद और इन्द्र परस्पर वार्तालाप करते-करते बीच-बीच में स्वगत-भाषण भी करने लगते हैं। तीसरे अंक में महाराज हरिश्चन्द्र काशी में घूमते हुए काशी और गंगा-वर्णन में तीन पृष्ठ का स्वगत-भाषण कर डालते हैं। श्मशान में तो इससे भी अधिक कमाल करते हैं-पूरे ६ पृष्ठ का स्वगत-भाषण उनके मुख से कराया गया है।