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हिन्दी के नाटककार को विश्वास दिया ? आप ही सब मरते, चाहे जहन्नुम में पड़ते, और उस पर तुर्रा यह है कि किसी को चाहे कितना भी दुखी देखें आपको कुछ घृणा तो आती ही नहीं।"-इसमें चन्द्रावली के हृदय का रोषभरा उपालम्भ, निराशाभरी वेदना, और प्रेम की फटकार है। ___ 'नील देवी' में अमीर पागल, चपरगह पीकदान अली श्रादि के चरित्रों का भी भला चित्रण हुअा है ।
_ 'सत्य हरिश्चन्द्र' में हरिश्चन्द्र जब शमशान में पहरा दे रहे हैं, तब उनके हृदय की अवस्था देखिए : ___"विधना ने इस दुख पर भी वियोग दिया। हा ! यह वर्षा और यह दुख ! हरिश्चन्द्र का तो ऐसा कठिन कलेजा है कि सब सहेगा: पर जिसने सपने में भी दुख नहीं देखा, वह महारानी किस दशा म होगी। हा देवी ! तुमने ऐसे ही भाग्यहीन से स्नेह किया है जिसके साथ मदा दुख-ही
सूनी रात और मरघट का सन्नाटा, वर्षा की ऋतु -ऐसे में अपने प्रियजनों का वियोग सताता ही है । दुविधा के भंवर में डोलते हुए हरिश्चन्द्र के चित्त की अवस्था उसके इस कथन से ही प्रकट है : "नारायण ! नारायण ! मेरे मख से क्या निकल गया ? देवता उसकी रक्षा करें। (बाई आंख का फड़कना दिखाकर) इसी समय में यह महा अपशकुन क्यों हुआ? (दाहिनी भुजा का फड़कना दिखाकर) अरे ! और साथ ही मंगल शकुन भी ! न जाने क्या होनहार है वा अब क्या होनहार है ? जो होना था मो हो चुका । अब इसमे बढ़कर और कौन दशा होगी ? अब केवल मरण मात्र बाकी है। इच्छा तो नहीं कि सत्य छूटने और दीन होने के पहले ही गरीर छटे, क्योकि इस दुष्ट चित्त का क्या ठिकाना है। पर वश क्या है ?"
रोहिताश्व का शव लिये तारा को वह पहचान लेता है। यहाँ उसकी मनोव्यथा की सीमा टूट जाती है । हृदय तिलमिला उठता है और वह कर्तव्य और भावना के द्वन्द्व की चक्की में पिस जाता है,---"हा वज़ हृदय इतने पर भी तु क्यों नहीं फटता ? अरे नेत्रो अब और क्या देखना बाकी है कि तुम अब भी खुले हो ? . . . . . इससे पूर्व कि किसी से सामना हो, प्राण त्याग करना ही उत्तम बात है। (पेड़ के पास जाकर फांसी देने योग्य डाली खींचकर उसमें दुपट्टा बाँधता है) धैर्य । मैंने अपने जान सब अच्छा ही किया (दुपट्टे की फाँसी गले में लगाना चाहता है कि एक साथ चौंककर) गोविन्द ! गोविन्द ! यह मैंने क्या अधर्म अनर्थ विचारा ! भला मुनः दास