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आलोक
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नाटककारों ने कभी इसकी चिन्ता न की कि उनके नाटक अभिनय-योग्य बने । अनेक नाटककार ऐसे हैं, जो रंगमंच के विषय में बिलकुल कारे हैं। उनका ज्ञान पट-परिवर्तन, प्रवेश और प्रस्थान तक ही सीमित है।
पाठ्य विषय में नियत होने के कारण अनेक नाटक गौरवान्वित हैं। तब लेखक को चिन्ता क्यों होने लगी कि उसके नाटक रंगमंच के उपयुक्त हों। जब तक नाटक केवल कोर्स में लगवाने के लिए ही लिखे जायंगे, तब तक न रंगमंच के स्वप्न देखिए, न अच्छे नाटक लिखे जाने के।
अभी तक भी रंगमंच या अभिनय-कला के संबंध में एक भी पुस्तक हिन्दी में नहीं । यदि कुछ उत्साही युवक या शौकिया नाटक-समाज अभिनय का आयोजन भी करें तो उनको निर्देश प्राप्त होना भी दुर्लभ है । जैसा कुछ हुआ, मुंह रंगकर उछल-कूद कर ली। ___अभी तक हिन्दी में 'नाट्य-शास्त्र' के ढंग को कोई पुस्तक नहीं। जिसमें पर्दे, रूप-धारण, प्रकाश-प्रभाव, नेपथ्य-गान, वेश-भूषा आदि का विवेचन मिल सके। ___ नाटक-लेखन-कला पर भी अभी तक एक भी पुस्तक नहीं निकली। जो कुछ हो रहा है अभ्यास, प्रतिभा, अनुकरण, प्रेरणा के बल पर । लेखन-कला पर पुस्तकें पढ़ने से कोई व्यक्ति लेखक नहीं बन सकता, पर प्रतिभाशाली को पथ-प्रदर्शन अवश्य मिलता है।
अनेक विद्वान् समीक्षकों ने पारसी-नाटक-कम्पनियों के अस्तित्व को भी हिन्दी-रंगमंच के विकसित होने में बाधा गिनाया है। कोई-कोई श्रालोचक मुस्लिम प्रभाव को भी रंगमंच के अभाव का कारण मानते हैं, पर श्राज न तो वे नाटक-कम्पनियाँ हैं, न मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव और शासन का आतंक, तब भी रंगमंच कहाँ निर्मित हो गया ? स्वाधीन हुए पाँच वर्ष हो गए, अभी तक किसी नगर में भी हिन्दी-रंगमंच या नाट्य-समाज के निर्माण की बात हमने नहीं सुनी। स्पष्ट है, ये कारण केवल कारण गिनाने की धुन-मात्र हैं । मुख्य कारण वही हैं, जो हमने उपस्थित किए हैं। ___ जब तक समाज की मनोवृचि नहीं बदलती और उन सभी श्रभावों और दोषों को दूर नहीं किया जाता, कभी भी रंगमंच की स्थापना नहीं हो सकती। प्रस्तुत पुस्तक
हिन्दी के नाटककार' में हिन्दी के प्रायः सभी नाटकों की समीक्षा का प्रयत्न रहा । जिन नाटककारों ने अपना विशेष स्थान बना लिया है और रचनाए भी भनेक की हैं, उनकी कृतियों की समीक्षा विशेष रूप से की गई है। एक-दो