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हिन्दी नाटककार
रचना प्रस्तुत करने वाले कलाकार के विकास भी निर्णय दुष्कर कार्य हैं। हाँ जिसके ५-६ नाटक प्राप्त हों, उसकी कला का स्वरूप कुछ-न-कुछ स्थिर अवश्य हो जाता है। हो सकता है, भविष्य में वह कोई श्राशातात रचना प्रस्तुत कर दें । पर ऐसा कम ही होता है । जिन नाटककारों की रचनाओं की समीक्षा विस्तृत रूप में की गई है, उनकी कला स्थिर हो चुकी हैं।
जिन लेखकों ने संख्या की दृष्टि से कम नाटक लिखे हैं या जिनकी कला का रूप स्थिर नहीं हो पाया, उनकी रचनायों की समीक्षा संक्षेप में की गई है। उनकी कला के विकास के लिए अभी पथ खुला है। भविष्य में वे यदि नाटक लिखना जारी रखें तो उनमें और भी उन्नत विकसित और कलापूर्ण नोटों की की जा सकती है ।
हिन्दी-नाटकों में रंगमंचीय नाटकों का भी अपना स्थान है। उनकी उपेक्षा करना भारी अन्याय और अहित है । रगमंचीय नाटकों ने पारसी-रंगमंत्र पर हिन्दी की प्रतिष्ठा करने में प्रशंसनीय कार्य किया । जनता में हिन्दी नाटकों के लिए रुचि उत्पन्न की। उनसे किसी सीमा तक हिन्दी-प्रचार को भी गति मिली | रंगमंचीय नाटकों ने भी हिन्दी के प्रति अपना कर्तव्य पालन किया । उनका भी विवेचन इस पुस्तक में किया गया है । उनकी समीक्षा इतनी fatतृत और तास्विक नहीं की गई, जितनी साहित्यिक नाटकों की। इसकी श्रावश्यकता भी नहीं थी । वह ऐतिहासिक और परिचयात्मक ही अधिक है ।
नाटककारों का क्रम ऐतिहासिक दृष्टिकोण से ही रखा गया है, श्रेष्ठता के विचार से नहीं । हर एक नाटककार की रचनाओं की समीक्षा अपने में स्वतंत्र है । नात्मक दृष्टिकोण की जान-बूझकर उपेक्षा की गई है। तुलनात्मक समाचा हिन्दी में ही नहीं, किसी भी भाषा में खतरनाक उत्तरदायित्व है और विशेषकर वर्तमान लेखकों की तुलना करना तो भारी आपत्ति को निमंत्रण देना है। हिन्दी नाटक का सम्पूर्ण रूप में विकास विवेचन न करके, प्रत्येक नाकटकार के विकास की स्वतंत्र रूप में समीक्षा की गई है । सब नाटककारों की रचनाओं की समीक्षा पढ़कर तुलना पाठक स्वयं भी कर सकता है ।
इस बात का सचेष्ट पालन हुआ है कि लेखनी किसी से अभिभूत न हो, किसी से उदासीन न हो, किसी से श्रद्धावनत भी न हो। इस बात का पूरापूरा प्रयत्न रहा है कि समीक्षाधीन लेखक की कला का यथार्थ विवेचन किया जाय । उसको सही रूप में पाठक के सामने लाया जाय । नाट्य- सिद्धांतों की कसौटी पर उनको कसा जाय और अपने प्रयोग परिणाम बिना छिपाव