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हिन्दी नाटककार हिन्दुस्तानी का प्रभाव लिये हुए । हश्र दोनों भाषाए-हिन्दी-उद-लिखने में सिद्धहस्त थे । इन तोन नाटककारों ने विशेष रूप से हिन्दी को पारसोमंच पर अधिष्ठित किया। हिन्दी-नाटक भी विशेष रूपसे धार्मिक तथा पौराणिक, अभिनीत किये जाने लगे । जनता में भी उनके देखने की रुचि बढी। बेताब के 'महाभारत' और राधेश्याम के 'अभिमन्यु' ने तो कम्पनी को लाखों रुपया कमाकर दिया। इतना कुछ होने पर भी हिन्दी का रङ्गमंच स्थापित न हो सका । ये व्यवसायो नाटक-मण्डलियाँ भी उर्दू-प्रधान ही रहीं।
सिनेमा के आगमन ने इन कम्पनियों को समाप्ति कर दी। थोड़े- बहुत जो हिन्दी-नाटक कभी-कभी देखने को मिल जाया करते थे, वे भी लुप्त हो गए । प्रसाद-युग से हिन्दी में अनेक अच्छे क तापूर्ण साहित्यिक नाटक लिखे जा रहे हैं; पर रंगमंच की ओर अभी भी किसी का सचेष्ट ध्यान नहीं है। नाटककार न तो इस बात को चिंता करते हैं कि नाटक अभिनेय हो, और न इस बात का ध्यान कि रंगमंच की स्थापना का यत्न किया जाय । कुछ दिन से स्कूल-कालेजों में नाटक खेले जाने की रुचि बहुत बढ रही है । साहित्यिक नाटकों का अभिनय भी विद्यार्थी करते रहते हैं। 'प्रेमी' के 'रक्षा-बंधन', 'स्वप्न-भंग' तथा 'बंधन' का अनेक अवसरों पर अभिनय किया जा चुका है। रामकुमार वर्मा के एकांकी नाटकों का भी अभिनय हुआ है । कई कालेजों में यदा-कदा और साहित्य-सम्मेलनों के अवसर पर 'प्रसाद' जी के नाटकों का भी अभिनय हुआ है । यह सब-कुछ होते हुए भी अभी तक हिन्दी-रंगमंच की स्थापना नहीं हो सकी । ___ जब तक रंगमंच के अभाव के कारण दूर नहीं किये जाने. हिन्दी-रंगमंच स्थापित नहीं हो सकता। ये व्यक्तिगत, बिखरे हुए प्रयत्न कभी भी हमें स्वस्थ और सफल रंगमंच नहीं दे सकते । रंगमंच के अभाव के निम्न कारण हो सकते हैं :
जिन प्रान्तों-उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यभारत, मध्यप्रदेश, पूर्वी पंजाबमें हिन्दी का विकास हुआ, उन प्रांतों में संगीत, नृत्य तथा, अभिनय को मामा जिक रूप मे हीन समझा जाता रहा है। इसलिए न तो शिक्षित लोगों ने इन कलाओं में रुचि दिखाई, और न अभिनय के लिए युवक-युवतियों रंगमंच पर आये ।
हिन्दी जिस क्षेत्र में जन्मी और जहाँ नाटककार उत्पन्न हुए, वह क्षेत्र सामाजिक रूप में भी पिछड़ा रहा है। पर्दा-प्रथा ने युवतियों को अभिनय अादि में भाग नहीं लेने दिया।