________________
आलोक
३
युग में प्रशंसनीय प्रयत्न हुश्रा । एकांकी नाटकों के अनेक संग्रह भी प्रकाशित होते रहते हैं, रामकुमार वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, विष्णु प्रभाकर, उदयशंकर भट्ट, उपेन्द्रनाथ अश्क, गोविन्ददास, भुवनेश्वरप्रसाद तथा जगदीशचन्द्र माथुर श्रादि ने अनेक एकांकी-संकलन प्रकाशित किये । रेडियो-नाटक लिखने में विष्णु प्रभाकर, हरिश्चन्द्र खन्ना, अश्क, तथा रामकुमार वर्मा के नामों का उल्लेख किया जा सकता है । हिन्दी-रंगमंच
अपना स्वतंत्र रंगमंच स्थापित करने में हिन्दी-नाटक अभी तक असफल ही रहे हैं। भारतेन्दु ने प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने का प्रत्यत्म किया, परन्तु रंगमंच वह भी स्थापित न कर सके। संवत् १६१८ में श्री शीतलाप्रसाद-लिखित 'जानकी मंगल' का अभिनय बनारस थियेटर्स में हुआ था। भारतेन्दु का 'सत्य हरिचन्द्र' बलिया और कानपुर में खेला गया। कानपुर मे 'रणधीर प्रेम मोहिनी' भी रंगमंच पर लाया गया। इधर-उधर भारतेन्दु तथा उनके समकालीन लेखकों के नाटक यदा-कदा खेले जाते रहे. पर इन से हिन्दी-रंगमंच की प्रतिष्ठा नहीं हुई।
प्रसाद-युग से पूर्व, संक्रान्ति काल में, देश-भर में व्यवसायी नाटकमण्डलियों की धूम थी। विक्टोरिया थियेट्रिकल, एलड थियेट्रीकल, न्यूएलफ्रड, एल क जैण्ड्रिया, इम्पीरियल , जुबली, लाइट श्राव इण्डिया, तथा भारत-भ्याकुल श्रादि अनेक कम्पनियाँ देश-भर में घूम-घूमकर नाटक दिखाती फिरती थीं। ये कम्पनियां अधिकतर उर्दू नाटकों का अभिनय करती थीं। इनके अभिनय में उछल-कूद, चिल्लाना, हास्य में अश्लीलता, वेश-भूषा में बुद्धि-हीनता, वातावरण में अनैतिहासिकता और अवसर-हीनता रहती थी। संवादों में शेरबाजी का बड़ा जोर था। इन नाटक-मण्डलियों के कारण जनता की रुचि दूषित हुई । उर्दू का आधिपत्य रंगमंच पर हो गया। नवीन प्रयोग का कोई अवसर न रहा और यदि कुछ प्रयत्न हिन्दी-सेवा के जोश में किया भी गया तो वह सफल न हो सका।
इन नाटक-मण्डलियों ने इतना अवश्य किया कि हिन्दी के भी कुछ नाटक यत्र-तत्र खेले। राधेश्याम कथावाचक के 'वीर अभिमन्यु', श्रवण कुमार', 'ईश्वर-भक्ति' तथा 'परमभक्त प्रहलाद', नारायणप्रसाद 'बेताब' के 'महाभारत' तथा 'रामायण',श्रागा हश्रके 'सूरदास', 'गंगा श्रौतरण' और सीता वनवास' की बड़ी धूम रही। राधेयाम जी के नाटक हिन्दी-प्रधान होते थे। 'बेताब' के