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हिन्दी नाटककार
'सिन्दूर की होली' और 'मुक्ति का रहस्य' में बहुत सुन्दर मनोवैज्ञानिक ढंग से अपराध स्वीकार करके पाप मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया गया है । -तंत्र, मिलेगी । नारी समस्या को भी सुलझाने की श्राकुलता इन नाटकों ली गई हैं 'संन्यासी' में भारत और एशिया की दासता की समस्या मिश्र जी के नाटक विचार - प्रधान हैं, फिर भी वे भावुकता से पीछा नहीं छुड़ा सके । 'छाया', 'बन्धन', 'अपराधी', 'दुविधा', 'विकास', 'सेवा-पथ', 'अंगूर हैं की बेटी' और 'कमला' इसी वर्ग के नाटक
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प्रसादोत्तर काल में टैकनीक की ओर भी विशेष ध्यान दिया गया । कला साहित्यिकता के साथ ही नाटकों को अभिनय के योग्य बनाने की चिन्ता भी लेखकों ने की । लक्ष्मीनारायण मिश्र ने प्रायः सभी नाटकों में तीन अंक रखे । अंक ही दृश्य हैं । नाटकों से विभिन्न दृश्यों की अदल-बदल उन्होंने दूर की । यद्यपि कई नाटकों में उन्होंने काफी गड़बड़ भी की । दृश्य बदले, पर दृश्य संख्या न देकर, पट- परिवर्तन के द्वारा दृश्य बदला गया। बाद के नाटकों में शुद्ध रूप में तीन श्रङ्क तीन दृश्य बनकर आए। इनके नाटकों में गीतों की परम्परा भी विलीन हो गई । इनके तीन की नाटकों का श्रभिनय सफलता और सरलता से हो सकता है । 'प्रेमी' ने टैकनीक में नवीनता उत्पन्न नहीं की, पर उनके प्रायः सभी नाटकों का श्रभिनय किया जा चुका है । इस युग के नाटकों में संकत्जन-त्रय का भी बहुत ध्यान रखा गया है । श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र ने इस सिद्धान्त का सबसे अधिक सफलता और आस्था के साथ पालन किया है । उनके अधिकतर नाटकों की कथा का समय एक-दो दिन से अधिक नहीं । कार्य, समय, स्थान तीनों की एकता सिन्दूर की होली', 'मुक्ति का रहस्य' और 'राजयोग' में सफल रूप में मिलेगी । अन्य
ककारों ने भी इस सिद्धान्त का पालन करने कोचेष्टा की। नाटकों का श्राकार भी छोटा रहने लगा । तीन-चार अङ्क में नाटक पूर्ण हो जाता है । उसका अभिनय भी ढाई घण्टे से अधिक समय नहीं लेता। 'प्रेमी' के नाटक छोटे हैं, पर उनके कथानक वर्षों का समय लेने वाले हैं इसलिए उनमें संकलन - श्रय का सिद्धान्त पालन न हो सका ।
प्रसादोत्तर काल हिन्दी नाटकों की समृद्धि का समय है। इस युग नेक नाटकों के पाठ्यक्रम में श्रा जाने के कारण हिन्दी अनेक नाटककार उत्पन्न हो गए। और इन स्कूली नाटककारों के हाथों नाटकों की मिट्टी भी कम खराब नहीं हुई ।
इस युग की देन और भी है। एकांकी तथा रेडियो नाटक लिखने में इस