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हिन्दी नाटककार गोस्वामी) 'काम-कन्दला' और 'माधवानल' (शालिग्राम ) नाटक भी भारतेन्दुयुग में प्रसूत हुए । इन नाटकों के नाम हो से इनके विभिन्न विषय प्रकट हैं। मालूम होता है, भारतेन्दु-युग में लेखकों का ध्यान राष्ट्रीय, सामाजिक और धार्मिक सभी विषयों पर जाने लगा था। ___ भारतेन्दु जी की प्रतिभा ने अपने युग के सभी लेखकों को प्रेरित और प्रभावित किया । उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों से कथानक लेकर अनेक प्रकार के नाटक लिखे । भारतेन्दु की दिव्य लेखनी से पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, सभी प्रकार के नाटक प्रसूत हुए । शृङ्गार, वीर, हास्य, करुणा श्रादि अनेक रसों का उनकी रचनाओं में समावेश है। यही बात भारतेन्दु-काल के अन्य नाटकों पर भी लागू होती है । प्रेमवन, प्रतापनारायण मिश्र, और राधाकृष्ण दास के नाटक राष्ट्रीय वर्ग में प्रायंगे और शेष मामाजिक में । इस युग के सभी नाटकों पर संस्कृत-शैली का प्रभाव है । भारतेन्दु जी भी संस्कृत के प्रभाव से मुक्त नहीं, यद्यपि उन्होंने अपनी स्वाधीन नाट्यप्रतिभा का भी पर्याप्त परिचय दिया था। नान्दी-पाठ, मंगलाचरण, भरतवाक्य, प्रस्तावना आदि इस काल में अधिकतर नाटकों में पाये जाते हैं।
भाषा के सम्बन्ध में एक नियम-सा स्वीकृत मालूम होता है कि गद्य की भाषा खड़ी बोली और पद्य की ब्रजभाषा रहनी चाहिए । पद्यात्मक संवादो की मन उकता देने वाली भरमार है। स्वगत-भाषण भी बहुत हैं। 'सज्जाद-सम्बुल' और 'समसाद सौसन' ने भी इस युग में रट्याति पाई; इनकी भाषा उर्दू से बहुत ही अधिक प्रभावित है। इस युग के नाटक प्राचीन परिपाटी पर ही लिखे गए; पर उनमें नवीनता की ओर बढ़ने की श्राकुलता अवश्य पाई जाती है । धर्म का आतंक घटता दीखता है। नाटक स्वाधीन होने की बेचैनी लिये समाज और इतिहास का आलिंगन करता हुश्रा पाया जाता है। व्यंग्य का विशेष पुट भी उनमें दिया जाने लगा था। खड़ी बोली का प्रभाव बढ़ता मालूम होता है और उर्दू के शब्दों का बेधड़क प्रयोग करके भाषा को अधिक स्वाधीन बनाने का प्रयत्न भी प्रकट होता है। इस युग में चरित्र-चित्रण का विकास नहीं हो पाया । आन्तरिक संवर्ष बहुत कम नाटकों में मिलेगा। बाहरी सक्रियता विशेष रूप में पाई जाई है, श्रान्तरिक द्वन्द्व की घुटन और सघनता नहीं मिलती। ___ भारतेन्दु के बाद से और 'प्रसाद' के पूर्व तक हिन्दी-नाटकों का संक्रान्ति काल रहा । इस युग में नाटकों की प्रगति तो हुई ही नहीं, दुर्गति अवश्य हुई । अनुवादों की वह बाढ़ आई कि मौलिक नाटकों की ओर किसी