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हिन्दी के नाटककार
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निर्मित की जाती हैं हँसाने के लिए। इनका हास्य घटना प्रधान है । ऐसी स्थिति की यह कल्पना करते हैं कि हँसी तो बहुत आती है, पर उसका स्थायी भाव नहीं रहता; जैसे कहीं किसी को भय से घाट के नीचे घुमा देंगे या भूल से कोई आदमी बाल सफा साबुन से स्नान कर लेगा और उसकी मूँछें और सिर के बाल साफ हो जायेंगे और ऐसी स्थिति पर दर्शकों को हँसी आ ही जायगी । इनकी रचनाओं में न तो वैयक्तिक और न सामाजिक या राजनीतिक व्यंग्य मिलेगा । जीवन में प्रभाव डालने वाले व्यंग्य के दर्शन दुर्लभ हैं । इनकी भाषा चलती हुई, चुस्त और उर्दू का हल्का प्रभाव लिये हुए वह हास्य के उपयुक्त है, इसमें सन्देह नहीं । अनुवादों में इन्होंने काफी स्वतन्त्रता बरती है । मौलियर का हास्य कम ही रह गया है और इनका अपना हास्य अनुवादों अधिक आया है । साधारण, पद, नौकर आदि पात्रों से पूर्वी भाषा का प्रयोग कराया है। यह ग्राम पाठकों का रस-भंग करने वाली बात है । फिर भी जिस युग में ये प्रहसन लिखे गए, उन दिनों हिन्दी में हास्य का अभाव था, इन्होंने कम-से-कम पाठकों का मनोरंजन तो किया और अन्य लेखकों के सामने कुछ उपस्थित तो किया । आजकल के लेखक उसे शुद्ध, परिष्कृत और सुरुचि सम्पन्न बना सकते हैं ।