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संक्रान्ति-काल
२५१ 'धूप-छाँह' सम्भवतः १६४० में प्रकाशित हुआ। इसके प्रकाशित होने से पूर्व ही इसी नाम से फिल्म भी बन चुकी थी। उसी फिल्म को सुदर्शन जी ने नाटकीय रूप दे दिया है। इसमें भी कथानक में कमाल का कौतूहल, नाटकीयता और रहस्य-ग्रंथि है। एक धनी के बालक को उसके सम्बन्धी किस प्रकार उड़ाकर ले जाते हैं और जङ्गल में छोड़ पाते हैं, वह एक अंधे साधु के हाथ पड़ जाता है अन्त में सारे रहस्य का उद्घाटन हो जाता है। इस नाटक में स्थितियों और घटनाओं की सुन्दर पकड़ है । दर्शक देखे जायगा। कौतूहल और रुचि अन्त तक बनी रहेगी। चरित्र-चित्रण का प्रभाव इसमें अवश्य खटकता है।
सुदर्शन जी प्रसिद्ध फिल्म लेखक हैं। इनके अनेक फिल्म बड़ी सफलता से अनेक सिनेमाघरों में चल चुके हैं। इसलिए घटनाओं और स्थितियों को अत्यन्त गठित रूप से कथानक की माला में पिरोने की प्रतिभा सुदर्शन जी में है; पर इनके नाटकों मे गम्भीर प्रभाव, चरित्र की विचित्रता, मनोवैज्ञानिक परिवर्तन, जीवन के विश्लेषण आदि का प्रभाव रहता है। वैसे इनके नाटक साहित्य और रंगमंचीय कला का अच्छा सामंजस्य करते हैं। गंगाप्रसाद श्रीवास्तव
जी० पी० श्री वास्तव हिन्दी में जन-साधारण के लिए उथले दर्जे का हास्य लिखने के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। एक समय था, जब इनकी पुस्तकों की हिन्दी-पाठकों द्वारा बड़ी माँग थी । 'लतखोरीलाल' नामक हास्य-रस का एक उपन्यास भी इन्होंने लिखा । हास्य नाटकों (प्रहसनों ) का तो श्रीपास्तवजी ने हिन्दी में खासा ढेर लगा दिया । 'उलट-फेर' (१९१८ ई.), 'दुमदार श्रादमी' (१९१६ ई० ) 'गड़बड़-झाला' (१६१६ ई०) 'मरदानी
औरत' (१९२०) भूल-चुक' (१६२०) और 'बेसूड का हाथी' इनके मौलिक प्रहसन हैं। मौलिक प्रहसन लिखने के अतिरिक्त श्रीवास्तव जी ने प्रसिद्ध फ्रांसीसी हास्य-लेखक मौलियर के नाटकों का अनुवाद भी किया। 'मार-मारकर हकीम', 'श्रॉनों में धूल', 'नाक में दम', 'साहब बहादुर' और 'लाल बुझक्कड़' अनुवाद हैं।
श्रीवास्तव के प्रहसनों का हास्य बहुत ही निम्न कोटि का है । भौंडी मजाके छिछले संवाद, बेतुके व्यंग्य, अशिष्टता और अश्लीलता इनके प्रहसनों की विशेषताएं हैं। अनेक स्थलों पर तो लगता है नक्कालों का अभिनय हो रहा है । इनका हास्य शब्दों में अधिक अर्थ में कम होता है। चरित्र और स्वाभाविक कथा-विकास का हास्य इनकी रचनाओं में नहीं बल्कि घटनाएं