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उपेन्द्रनाथ 'अश्क'
२२५ राजेन्द्र का लड़का ज्वर में बेसुध है, तब भी उनको कंसर्ट में जाना है और जाते-जाते अपने पति से वे कहती हैं—'शाम का खाना मै मिसेज दयाल के यहाँ खा लगी। और बच्चे का ध्यान रखियेगा। मुझे चिता रहेगी।" चरित्रचित्रण की यह कला 'कैद' में सबसे अधिक उज्ज्वल और सफल रूप मे प्रकट हुई है । अप्पी अलस शिथिल चारपाई पर पड़ी है। और दिलीप के आगमन का समाचार सुनते ही चैतन्य हो जाती है। घर की सफाई करने लगती है। बच्चों को प्यार से नहलाने-धुलाने लगती है । 'छठा बेटा' में भी ऐसे ही भोले
और विरल स्पर्श से अश्क ने चरित्र-चित्रण-कला की एक अच्छी शैली उपस्थित की है। ___नाटक का प्रभावशाली अंत भी कला की सफलता का प्रमाण है । 'स्वर्गकी झलक', 'कैद', 'उड़ान', 'छठा बेटा' और जय-पराजय' (यदि अन्तिम दृश्य निकाल दिया जाय) तो इन सभी नाटकों का अन्त अत्यन्त प्रभावपूर्ण है। सभी के अन्त में एक धुंधली सी-छाया मन पर छा जाती है । 'कैद', 'उड़ान' और 'छठा बेटा' का अंतिम दृश्य नाटक में एक करुण बदनी फैला देता है।
अभिनेयता 'अश्क' ने अपने नाटकों में अभिनय-कला का पूरा पूरा ध्यान रखा है। अपने कई नाटकों की भूमिका में अश्क जी ने इस बात का विश्वास भी प्रकट किया है कि इनको रंगमंच का ध्यान भी है-और ज्ञान भी। 'अश्क' के नाटकों का जन्म उस युग में हुआ, जब 'प्रसाद', 'प्रेमी', लक्ष्मीनारायण मिश्र ऐसे प्रतिभाशाली कलाकरों के नाटक हिन्दी को समृद्ध कर चुके थे--कर भी रहे थे। उनकी कमियों से लाभ उठाने का अवसर अश्क के सामने था-इन्होंने लाभ उठाया भी। तब भी उनके नाटकों में अभिनय-कला का विकास क्रमशः हुश्रा है । धीरे-धीरे उनको अपनी कमियाँ मालूम होती गई। वह नये प्रयोग करते गए-अधिकाधिक सफल होते गए। ___'जय पराजय' अश्क की प्रथम रचना है। इसमें भी उन्होंने रंगमंच का ध्यान रखा है, पर इसमें रंचमंच के दोष अत्यन्त उभरे हुए हैं। अभिनय की दृष्टि से इसका दृश्य-विधान त्रुटिपूर्ण है । पहले अंक का पहला दृश्य मेवाड़ के इष्टदेव लकुटीश (शिव) के मन्दिर का है-भूमि के नीचे । दूसरा है, दो कुञ्जों के बीच एक रंगशाला, जहाँ भारमली का नाच होता है। तीसरा है, मंत्रणा-गृह का और चौथा राजमहल का, जहाँ महाराणा लक्षसिंह और उनकी रानी उपस्थित हैं, वहीं मन्त्री, चण्ड आदि भी प्रवेश करते हैं। ये सभी दृश्य काफी बड़े और प्रभावशाली हैं। इनका निर्माण लगातार-एक के बाद