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हिन्दी के नाटककार
'छठा बेटा' - - सभी एक ही स्थान पर आरम्भ और समाप्त होते हैं । समय भी क्रमशः इनमें तीन घण्टे, डेढ़-दो दिन, दस-बारह दिन से अधिक नहीं । 'कैद' इस दृष्टि से सबसे अच्छा है । ज्यों-ज्यों लेखक नाटककार के रूप में आगे बढ़ा है, उसकी कथावस्तु निर्बल पड़ती गई है । 'स्वर्ग की झलक' में केवल विभिन्न दृश्य ही हैं। कथा तो पहले और अंतिम अंक में ही है । 'अश्क' के नाटक एकांकी -कला से अधिक प्रभावित हैं — इसलिए उनमें काफ़ी चुस्ती भी है । फ़िल्म का भी उन पर प्रभाव 1
कार्य - व्यापार और श्राकस्मिकता नाटकीय कला के अनिवार्य अंग हैं । प्रथम नाटक में ही अश्क की कला अपने अधिकार के लिए श्राकुल है । इसमें अनेक दृश्यों में यह प्रभावशाली आकस्मिकता और गतिशीलता अत्यन्त सफल रूप में आई है । दूसरे अंक का पहला दृश्य - चण्ड का नारियल लेने से इंकार - कौतूहल और आकस्मिकता का उदाहरण है । तीसरे अंक का दूसरा दृश्य छोटा होते हुए भी कम्पन से भरा है । इसी श्रंक का चौथा दृश्य इससे भी महान् है । चौथे अंक का सातवाँ दृश्य दर्शकों को स्तम्भित कर देता है । रानी तारा अपने ही शिशु का वध करके उसे रणमल के चरणों पर डाल देती है. - यह दृश्य महान् है । पाँचवें का सातवाँ दृश्य भी सभी नाटकीय गुणों से युक्त है ।
स्वर्ग की झलक' और 'छठा बेटा' व्यंग्य नाटक हैं, इनमें गतिशीलता चाहे कम हो, पर श्राकस्मिकता खूब है । रघु रक्षा के साथ विवाह करने से इन्कार करके भी उसी के लिए स्वीकृति देता है । पाँचों बेटों को सब कुछ देते हुए भी बसन्तलाल उनसे कुछ भी श्राशा नहीं रखता । 'उड़ान' में अन्तिम दृश्य तो श्रत्यन्त नाटकीय है ।
चरित्र-चित्रण में लेखक ने बहुत ही सफल और अद्वितीय कला का प्रदर्शन किया है । प्रायः लेखक इस ढङ्ग से चरित्र व्यक्त नहीं कर पाते, जिस जिस ढङ्ग से अश्क ने किया है । चरित्र चित्रण में ही तो नाटककार की कला देखी जाती है । 'जय-पराजय' के तीसरे अंक के दूसरे दृश्य में चण्ड के उपftra sोने और 'माँ' कहने पर इसाबाई पीली पड़ जाती है और बेसुध हो जाती है | इससे उसके चरित्र में जो दबा प्रेम दिखाया गया है, वह अत्यन्त मर्मान्तक है, भारमली का चरित्र महान् उद्भावना है । 'स्वर्ग की झलक' में तूलिका का एक दो स्पर्श देकर ही 'अश्क' ने आधुनिक नारी का चरित्र उपस्थित कर दिया है । श्रीमती अशोक केवल रात में दो बार अपनी लड़की को पिलाने के कारण अस्वस्थ हैंदूध - खाना नहीं बना सकतीं। और श्रीमती