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उपेन्द्रनाथ 'अश्क' पुरुष है । तीनों पात्र अपने-अपने वर्ग के प्रतिनिधि हैं। माया एक प्राणवान नारी है, जो तीनों का शिकार होना न चाहकर चाहती है समतल भूमि ।
'छठा.बेटा' हास्य-प्रधान रचना है। उसमें चरित्र की गहनता 'कैद' और 'उड़ान'-जैसी नहीं मिलेगी; पर बसन्तलाल, हंसराज, कमला, माँसभी के चरित्र स्पष्ट हैं।
कला का विकास _ 'अश्क' के नाटकों में काफी विकसित कला के दर्शन होते हैं । 'जथपराजय' उनका प्रथम नाटक होते हुए भी नाव्य-कला का अच्छा प्रमाण देता है। दृश्यों का विधान नवीनतम नाटकों के अनुसार है । संस्कृत-नाट्य-कला का तनिक भी प्रभाव इसके नाटकों पर नहीं। स्वगत-जैसी चीज़ भी बहुत ही कम मिलेगी और जो-कुछ भी थोड़े-से स्वगत हैं, वे बहुत संक्षिप्त और स्वाभाविक हैं। अधिकतर स्वगत दृश्य के अन्त में हैं, जब कोई पात्र अकेला रह जाता है और अत्यन्त आवेश में होता है। झोटिंग, भदृ, रणमल, लक्षसिंह, हंसाबाई, भारमली, धाय आदि के ऐसे ही स्वगत हैं। 'जयपराजय' के बाद लिखे गए किसी नाटक में भी स्वगत का प्रयोग नहीं किया गया।
'जय-पराजय' में अश्क की कला की उँगलियाँ वास्तव में काँपती-सी लगती हैं, स्थिरता उनमें नहीं है। इस नाटक में वातावरण उपस्थित करने के लिए ही पहला और अन्तिम दृश्य रचा गया है। इनकी वास्तव में नाटक को कोई आवश्यकता नहीं। इस नाटक में अनेक दृश्य व्यर्थ-से भी हैं। पहला अंक पूरे-का-पूरा निरर्थक है। पहले अंक में केवल पात्रों का परिचयमात्र है, जो एक-दो दृश्यों के द्वारा दिया जा सकता था। कई-एक दृश्य पूरेके-पूरे बेकार है । वे केवल सूचनाओं, पूर्व घटनाओं या किसी स्थिति विशेष के परिचय के लिए लिख डाले गए हैं। नाटक तो वास्तव में दूसरे अंक से ही प्रारम्भ होता है-लक्षसिंह के वचन "हम बूढ़ों के लिए नारियल कौन लायगा" ही नाटक की बुनियाद हैं। व्यर्थ दृश्यों मे दूसरे अंक का दूसरा दृश्य, चौथे अंक का पहला दृश्य उपस्थित किये जा सकते हैं। इसके बाद सभी नाटकों में दृश्य-विधान अत्यन्त कलात्मक ढंग से नियोजित हुआ है।
अश्क' के नाटकों में ('जय-पराजय' को छोड़कर) संकलनत्रय का बहुत अच्छा निर्वाह हुआ है। समय, स्थान और कार्य (अभिनय) की एकता का अत्यन्त संतुलित स्वरूप इसके नाटकों में मिलता है 'कैद', 'उड़ान', और