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उदयशंकर भट्ट
१८७ नाट्य-कला अत्यन्त शिथिल गति से विकसित हुई। 'विक्रमादित्य', 'दाहर', 'सगर-विजय' उनके अभ्यास-काल के नाटक हैं। 'कमला', 'मुक्ति-पथ', 'शकविजय' श्रादि विकास-काल के माने जायंगे।
लेखक एक ओर तो संस्कृत नाटकों से प्रभावित हैं, और दूसरी ओर 'प्रसाद' से-विशेषकर काव्यमय रंगीन भाषा लिखने के प्रयास और चरित्रचित्रण में भाषा की उलझनभरी अलङ्कार-प्रधान शैली, स्वगतों की भरमार
और पद्यों का अरुचिकर समावेश संस्कृत-नाटकों की ही अस्वास्थ्यकर देन है। 'विक्रमादित्य' का प्रारम्भ मी 'मुद्राराक्षस' के समान होता है।
"चन्द्र बिम्ब पूरन भए क्रूर केतु हठ दाप, बस सौं करिहै ग्रास कह जेहि बुध रच्छत आप"
-'मुद्राराक्षस' "श्रवण योग से श्रीहत विधु हो दक्षिण आशा भाग, पूर्ण चन्द्र मण्डल में विक्रम पूरेगा उपराग । होगा मखग्रास सुविक्रम....................."
-'विक्रमादित्य' दोनों का प्रारम्भ एक ही भाव के संकेत से होता है ! वही श्लेष की माथा-पच्ची करने वाली शैली है, वही प्रकार है नाटक का विषय प्रकट करने का। विक्रमादित्य' का प्रथम दृश्य एक प्रकार से नाटक की प्रस्तावना
स्वगतों की अस्वाभाविक भरमार और लम्बी-लम्बी वक्तृतानों से नाटक भरे पड़े हैं। विक्रमादित्य' में पहले अंक के दूसरे दृश्य में सोमेश्वर का डेढ़ पृष्ठ, तीसरे दृश्य में विक्रमादित्य का साढ़े तीन पृष्ठ, तीसरे अंक के दूसरे दृश्य में चेंगी का डेढ़ पृष्ठ, चौथे अंक के पहले दृश्य में प्रधान मंत्री का डेढ़ पृष्ठ, पाँचवें अंक के दूसरे दृश्य में विक्रमादित्य का दो पृष्ठ का स्वगत-भाषण है, ये सभी स्वगत-भाषण पात्र अकेले बैठे-बैठे करता रहता है। न इनमें कोई मानसिक उद्वेग है, न कोई दुविधापूर्ण मानस-संवर्ष । कई बार तो घटनात्रों का वर्णन-मात्र ही इनमें होता है। और सबसे मजेदार स्वगत है पहले अंक के दूसरे दृश्य में चन्द्रकेतु का । वह स्वगत-भाषण करता है तो उसके उत्तर में सोमेश्वर भी स्वगत-भाषण करता है । इसे कहते हैं जैसे को तैसा। इस नाटक में ऐसे स्वगत तो अनेक हैं, जिनमें अपने सामने बैठने वाले के विरुद्ध ही बातें कही गई हैं।
'दाहर' में भी यह रोग ज्यों-का-त्यों रहा। पहले अंक का दूसरा दृश्य