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हिन्दी के नाटककार एकनिष्ठ, स्नेह-प्राप्लावित कुलबधू है और दूसरी ओर कर्तव्य-रत माता । संयोग में उसका रूप सौंदर्यशीला नारी का है और वियोग में अश्रुवती कर्तव्यपरायणा विरहिणी माता का । उसके जीवन को कामना है, "इस जीवन की एक साध है-उनका दर्शन । वे मेरे हृदय की प्रतिमा हैं। मेरे आँसुओं के दृढ़ विश्वास है सुकेशी ! वे महान्, मैं तुच्छ हूँ। वे प्रभु हैं, मैं सेविका।" इन थोड़े-से शब्दों में ही गोपा का नारीत्व प्रकाशित है।
'शक-विजय' की सरस्वती और सौम्या भी नारी के भव्य, कोमल और सुन्दर रूप हैं । सरस्वती का सौन्दर्य अवन्ती के जीवन में एक हलचल है, राजनीति में बवण्डर है । वह शक-अाक्रमण का प्रमुख कारण है-सीधे रूप में नहीं । सरस्वती का हृदय कोमल है, दुग्ध-धवल है, मृगों के पारस्परिक प्रेम पर भी वह मुग्ध हो जाती है। वह एक साधिका है, कोई कुलबधू या प्रेयसी नहीं । तो भी उसके जीवन में समाज और राष्ट्र के प्रति विवेक है साथ ही उसमें एक स्वाभाविक नारीत्व भी सजग है, "क्या यह मिथ्या प्रवाद है कि महाराज कामुक हैं ? ( सोच कर ) भ्रम है, मेरा भ्रम है। मुझे दो में से एक मार्ग तय करना होगा ।.... 'ग्रोह ! उस दिन दूर से देखा था, महाराज की आँखों से कितना मधु छलकता था।" और आगे चलकर यह मधु-पाकर्षण और भी बढ़ जाता है । और वइ सुकुमार नारी शकों द्वारा किये गए नर-संहार को सहन न कर सकी, हीरा चाटकर उसने प्राणांत कर लिया।
नारी-चरित्रों का चित्रण भट्टजी के प्रायः सभी नाटकों में बहुत अच्छा हुअा है । शील, शक्ति, सौन्दर्य, त्याग, वीरता, घृणा, ईर्ष्या, प्रतिशोध-सभी का सशक्त रूप लेखक के नारी-चरित्रों में मिलता है।
कला का विकास भट्टजी की नाटक-रचना के पीछे न तो तीक्ष्ण नाटकीय प्रतिभा की सशक्त प्रेरणा ही है और न किसी विशेष अवस्था और जीवन-दर्शन का अनुरोध । नाटकीय प्रतिभा की प्रेरणा नाटकीय टैकनीक या प्रकार को प्राणवान रूप में रखती है और आस्था और नवीन जीवन-दर्शन उनके प्राणों को एक आकुलता-भरी गति देते हैं । 'प्रसाद' और 'प्रेमी' में इन दोनों का समावेश है। लक्ष्मीनारायण मिश्र में नवीन जीवन-दर्शन का अनुरोध है और गोविन्दवल्लभ पन्त में नाटकीय प्रतिभा की सबल मांग है। भट्टजी ने अपने नाटकों की रचना प्रयोग के रूप में ही की, इसीलिए उनके प्रारम्भिक नाटक कला और टैकनीक की दृष्टि से अत्यन्त असफल रहे। भट्टजी की