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हिन्दी के नाटककार अचानक नाव, ललिता, अश्गरी, रघुनाथ, मुनीश्वर कहाँ गायब हो जायंगे ! यदि दर्शकों के सामने ही सामान हटाया जायगा तो खासा तमाशा खड़ा हो जायगा । इसी प्रकार तीसरे दृश्य के निर्माण के विषय में समझना चाहिए । यही गड़बड़ी तीसरे अंक में भी है। अंक प्रारम्भ होता है, सड़क से। पर्दा उठाकर मातृ-मन्दिर का भवन आ जाता है । यह निश्चित रूप से सरलता से बनाया जा सकता है । सड़क पर कोई सामान तो एकत्र करना नहीं, बातचीत करने वाले प्रस्थान कर जायं, पर्दा उठाकर मातृ-मन्दिर का भवन दिखाया जा सकता है। मातृ-मन्दिर के बाद तीसरा दृश्य है ऊपर के कमरे का-मातृमन्दिर के पीछे वाले पर्दे के पीछे यह बनाया जायगा। इसमें भी वही कठिनाई है, जो दूसरे अंक के दृश्यों में ।
'राजयोग' में भी दृश्य-विधान-सम्बन्धी गड़बड़ है। पहला अङ्क प्रारम्भ होता है शत्रु सूदन के बंगले से । रघुवंशसिंह बँगले के कमरे से प्रस्थान करता है और बँगले के सामने सड़क पर आ जाता है । गजराजसिंह भी उसके पास श्राकर बातें करने लगता है । यह भी दूसरा ही दृश्य समझना चाहिए । यदि इसे भी अगले दृश्य न मानकर मिश्र जी के लम्बे-चौड़े रंग-संकेत के अनुसार दृश्य-निर्माण किया जाय तो बहुत स्थान घेरेगा, साथ ही सड़क की बातें बंगले में भी सुनी जायंगी,जो अभिनय की बहुत भद्दी त्रुटि होगी । 'मुक्ति का रहस्य' में दृश्यावली दुरूह अवश्य है, यद्यपि उसका निर्माण किसी-न-किसी प्रकार अवश्य किया जा सकता है । ___ दृश्य-विधान की दृष्टि से 'सिन्दूर की होली' और 'वत्सराज' निर्दोष ही नहीं, प्रशंसनीय रचनाए हैं। इनमें भी तीन-तीन अङ्क है-श्रङ्क ही दृश्य हैं। न तो 'सिन्दूर की होली' में और न 'वत्सराज' में ही अचानक पर्दा उठाकर दृश्य उपस्थित होता है। एक एक अंक दृश्य के समान चलता है । साथ ही अधिक अदल-बदल की आवश्यकता नहीं। 'सिन्दूर की होली' में एक ही दृश्य -(मुरारीलाल का बंगला ) निर्माण करना पड़ेगा । उसी में तीनों श्रङ्कों की कथा और कार्य पूर्ण रूप में समाप्त होते हैं। यह नाटक टैकनीक की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है। 'वत्सराज' में पहला अंक अवन्ती-नरेश के प्रासाद का बन्दी-कक्ष, दूसरा कौशाम्बी का राज-प्रासाद और तीसरा भी कौशाम्बी का राज-प्रासाद। तीनों अंक-दृश्यों का निर्माण बड़ी सरलता से हो सकता है।
अभिनय से सामाजिक शील का भी अत्यन्त सम्बन्ध है । 'संन्यासी' और 'राक्षस का मन्दिर' दृश्य-विधान की दृष्टि से तो अभिनय के अनुपयुक्त