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लक्ष्मीनारायण मिश्र
१७१ हैं ही, शील की दृष्टि से भी यह दोष-पूर्ण हैं । 'संन्यासी' और 'राक्षस का मन्दिर' में चुम्बनों और आलिंगनों की बहार लेखक ने लुटाई है, वह दोनों नाटकों का भारी दोष बन गई है। हम समझते हैं भारतीय रङ्गमंच पर आने वाले इतने साहसी अभिनेता अभी उत्पन्न ही नहीं हुए जो इस प्रकार मिश्र जी के यथार्थवाद का प्रदर्शन कर सकें। . कार्य-व्यापार, आकस्मिकता और कौतूहलजनक घटनाएं भी अभिनय में जान डाल देते हैं। कार्य-व्यापार की दृष्टि से मिश्र जी के नाटक शिथिल हैं, पर दौड़ा-झपटी ही कार्य-व्यापार नहीं हैं। बाहरी संघर्ष कम है, पर श्रान्तरिक संघर्ष पर्याप्त मात्रा में है। और यदि अभिनेता कला-कुशल हों तो इनके नाटकों का शानदार अभिनय किया जा सकता है। आकस्मिकता चाहे घटनाओं में न हो, पर चरित्रों में अवश्य है। सभी में कोई-न-कोई रहस्य भीतर-ही-भीतर घुट रहा है-यह दर्शकों की कौतूहल-वृद्धि के लिए काफी है। चरित्रों के भीतर की उलझन और घुटन यदि कोई सफल अभिनेता सही रूप में प्रदर्शित कर सके, तो नाटक प्रभावशाली रूप में अभिनीत हो सकते हैं। यद्यपि 'वत्सराज' का दूसरा अङ्क बहुत शिथिल है, तो भी गतिशीलता, कार्य-व्यापार, कथा के क्रमिक विकास, और चरित्रों के प्रकाशन आदि की दृष्टि से यह नाटक मिश्र जी की श्रेष्ठ रचना है।
कथोपकथन की दृष्टि से विचार करें तो सभी नाटकों के संवाद संक्षिप्त और उपयुक्त हैं। छोटे-छोटे वाक्यों में, जो कहीं-कहीं अपूर्ण ही समाप्त होते हैं, संवाद चलते हैं। भावावेश और मनोभाव-विश्लेषण को यह शैली नाटकीय है । कुछ संवाद ही, जो रूखे विचार-विवेचन के लिए दिये गए हैं, कुछ लम्बे और नीरस हैं । पर विचार-प्रधान नाटकों में यह अनुपयुक्त नहीं । 'सिन्दूर की होली' और 'वत्सराज' अभिनय की दृष्टि से मिश्रजी. के सर्वश्रेष्ठ नाटक हैं। इनमें अभिनय-सम्बंधी दोष देखने में नहीं पाते । 'मुक्ति का रहस्य' तथा 'राजयोग' थोड़ी कठिनता से अभिनीत किये जा सकते हैं । 'आधी रात', 'संन्यासी' तथा 'राक्षस का मंदिर' इतने दोषपूर्ण हैं कि इनका अभिनय किया ही नहीं जा सकता। रचना क्रम पर विचारें तो पता चलेगा कि मिश्रजी को अपनी त्रुटियों का ज्ञान होता गया है और क्रमशः वे उनको छोड़ते भी गए हैं। यथार्थवाद का अस्वाभाविक नशा भी उतरता गया है । पर अभी तक उनके नाटकों में एक बात की कमी हैनाटकीय घटनाओं के शक्तिशाली निर्माण का अभाव उनके हर-एक नाटक में खटकता है।