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लक्ष्मीनारायण मिश्र
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भाषा के संबंध में मिश्रजी ने यथार्थवाद का गलत प्रदर्शन किया है । आपने 'राक्षस का मंदिर' में स्थान-स्थान पर अंग्रेजी का प्रयोग किया है । अंग्रेज़ी सर्वपरिचित और प्रचलित शब्दों का प्रयोग तो इतना नहीं अखरता – कुछन कुछ शब्द भाषा और बोल-चाल में आ ही मिला करते हैं उस भाषा के, जिससे सम्पर्क होता है । पर मिश्रजी के प्रयोग बहुत ही सदोष हैं । पृष्ठ १६ पर रामलाल प्रवेश करते ही एक वाक्य अंग्रेजी में बोलता है और मुनीश्वर भी पूरा वाक्य अंग्रेज़ी में ही उत्तर में कहता है । पृष्ठ ११७ पर तो लगातार चार संवाद अंग्रेज़ी में हैं । यदि अभिनय किया जाय तो हिन्दी ही जानने वाला दर्शक बुद्धू की तरह मुँह ताकता रह जायगा । पर यह नाटक इतना दोषपूर्ण है कि शायद ही कभी अभिनय के लिए चुना जाय । यह नाटक नाट्य कला के अनेक दोषों से मंडित है । पर ज्यों-ज्यों लेखक आगे बढ़ता गया है, उसकी यथार्थवाद की अस्वाभाविक सनक कम होती गई है, टेकनीक भी सरल होती गई है और भाषा भी दोष मुक्त होती गई है।
अभिनेयता
ज्यों-ज्यों मिश्रजी नाटक लेखन में श्रागे बढ़ते गए, उनके नाटकों में अभि- गुण भी अधिकाधिक मात्रा में श्राता गया । मिश्रजी के हर एक नाटक तीन अंक होते हैं। यदि यही अंक सभी नाटकों में दृश्य भी होते तो उनके नाटक अभिनय के लिए अत्यन्त उपयुक्त हुए होते। पर लिखने के लिए तो हर नाटक में तीन अंक ही हैं पर रंगमंच की दृष्टि से 'संन्यासी', 'राक्षस का मन्दिर', 'राजयोग' तथा 'मुक्ति का रहस्य' में श्रंक - विधान अत्यन्त दोषपूर्ण है । यदि कही दृश्य भी हों, तो कठिन से कठिन दृश्य का भी निर्माण किया जा सकता है । अंकांत में यवनिका पात के लिए पर्याप्त समय मिल जाता है ।
पश्चात् अगले अंक- दृश्य के
दृश्य-विधान ही रंगमंच का प्रमुख अंग है । दृश्य-विधान में सबसे बड़ा दोष है कि अंक के मध्य में ही सहसा पर्दा उठ जाता है और दृश्य बदल जाता है । 'राक्षस का मन्दिर' के दूसरे अंक में 'ललिता और रघुनाथ का प्रस्थान, पर्दा उठता है और अगरी का कमरा दिखाई दे जाता है—यह दूसरा दृश्य हुआ। इसी श्रंक में आगे 'रघुनाथ और अश्गरी का प्रस्थान | पर्दा उठता है ललिता का कतरा' - यह तीसरा दृश्य है । श्रंक नदी तट से प्रारम्भ होता है, जहाँ नात्र तक हैं— मल्लाह है और अचानक पर्दा उठाकर दूसरा दृश्य उपस्थित हो गया । निश्चय ही यह दृश्य पर्दे के पीछे बनाया जायगा । पर