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हिन्दी के नाटककार उसका मुंह चूमते हुए ) कहता है, “मेरे बच्चे ...... (उसे छाती से लगाकर) आह ! तो यह मेरी मुवित है।"
सिन्दूर की होली' में मनोजशंकर मुरारीलाल से कहता है, "आपने स्वीकार कर लिया। मेरी आत्मा का बोझ उतर गया । अब मैं
आत्म-घाती पिता का पुत्र हूँ ( उत्साह से ), ओह ! मैं क्या था ! इसी चिन्ता में मेरा स्वास्थ्य बिगड़ गया, मानसिक बीमारी हो गई। बराबर रात को मैं उनको स्वप्न में देखता था और सारा दिन उसी स्वप्न को भावना में पड़ा रहता था......।" यह भी स्वगत का परिवर्तित रूप ही है।
सभी नाटकों में, एक-दो स्थलों को छोड़कर, जहाँ कथोपकथन एक-एक पृष्ठ के हो गए हैं, कथोपकथन अत्यन्त संक्षिप्त हैं। वे स्वाभाविक और सार्थक भी हैं। उनमें बात-चीत की शैली मानसिक अस्थिरता को प्रकट करने वाली है-प्रायः वाक्य अपूर्ण ही रहते हैं । यह अत्यन्त स्वाभाविक और प्रभावशाली है । इसमें नाटकीयता का प्राधान्य है। पर कहीं-कहीं साधारण वाक्यों को भी तोड़ दिया गया है, जिससे अर्थ में बाधा उपस्थित होती है। पर ऐसे स्थल बहुत ही कम है। ___ गीतों का सभी नाटकों में प्रभाव है । 'संन्यासी' और 'राक्षस का मन्दिर' में एक-दो पद्य आ गए हैं, सो भी कविता के रूप में। गीतों का बहिष्कार जहाँ एक ओर अस्वाभाविकता से नाटकों की रक्षा करता है, उनमें गद्यात्मक यथार्थता ला देता है, वहाँ गीत-विरोधी-प्रवृत्ति का इतनी कठोरता से पालन नाटकों में एक सीमा तक नीरसता भी ला देता है। __ मिश्रजी की भाषा-सम्बंधो भूलें हास्यास्पद हैं। लिंग-दोष, पूर्वी प्रयोगों का दोष, व्याकरण-सम्बंधी दोष, और शब्दों की अशुद्धि के दोषों से वह मुक्त नहीं है। 'राक्षस का मंदिर' में 'तुम चली जावो वहाँ से' (पृष्ठ ३), 'कैसे जाने पावो' (पृष्ठ ४), 'निकल जावो' (पृष्ठ ५) 'रंज मत हो' (पृष्ठ ५), 'बहादुरी की ढोंग' (पृष्ठ १२), 'उसी से गुजर हो जायगा' (पृष्ठ ६), 'स्वर्ग
और नर्क बच्चों की खेल है।' 'पापके साथ ईमानदारी किया, 'फरयाद किया था' 'शहर की बाज़ार उनके हाथ में होती' पंक्तियाँ सरलता से उद्धृत की जा सकती हैं। सिंदूर की होली'--जो टैकनीक की दृष्टि से सबसे अच्छा नाटक है, इन दोषों से मुक्त नहीं। 'तुमको भी उसकी चाल-चलन पसन्द नहीं' (पृष्ठ २४) 'मै फांसी पडूंगा' (पृष्ठ ६६) 'उस बदकिस्मत लड़के पर रहम हो रहा है' (पृष्ठ-१७) नहीं तो वह लोण्डा मेरी इज्जत बिगाड़ दिये होता' (पृष्ठ २४)