________________
लक्ष्मीनारायण मिश्र
१६७
की इच्छा-अनिच्छा का विचार किये बिना ही सबको जब चाहा दर्शकों के सामने धकेल देते हैं या एक पात्र को अपनी बात कहने का अवसर देने के लिए दूसरे पात्र को रंगमंच से भगा देते हैं। प्रवेश प्रस्थान का यह तमाशा अनावश्यक
और अस्वाभाविक है। ___सिंदूर की होली' में रामलाल, माहिर अली, इसलिए प्रस्थान कर जाते हैं कि भगवन्तसिंह और हरनन्दन को बातचीत का अवसर मिल जाय । मनोजशंकर, चन्द्रकला को भी अवसर देने के लिए कभी मुरारीलाल, कभी माहिर अली और मनोजशंकर प्रस्थान करता है, कभी कोई प्रवेश । यह प्रस्थानप्रवेश का क्रम 'वत्सराज' में बहुत कुछ स्वाभाविक हो गया है-सबसे अधिक स्वाभाविक तीसरे अंक में।
नाटककार का विश्वास यथार्थ चित्रण में अटूट है। और इसी यथार्थ-: प्रदर्शन के लिए उसने 'संन्यासी', 'राक्षस का मन्दिर' श्रादि में चुम्बन-प्रालिगन की वर्षा कर दी है। इन नाटकों के पात्र मुक्तहस्त हो अभूतपूर्व उदारता से चुम्बन.बखेरते और आलिंगन अर्पित करते पाए जाते हैं। 'राक्षस का मन्दिर' का पहला अङ्क तो अश्गरी और मुनीश्वर के इन वीरता पूर्ण चुम्बनों का कुआ है। और जब दुर्गा अपने पति मुनीश्वर के चरणों पर बे-सुध पड़ी है, तब भी अगरी को चुम्बन चाहिए।
मिश्र जी के नाटक सामाजिक और उनके कथानक और चरित्र भी वर्तमान जीवन के ही हैं। इन चरित्रों में प्राचीन परिभाषानुसार नायक-नायिका श्रादि खोजना भूल है । यथार्थ जीवन के चरित्रों में श्रादर्श खोजना और उनसे भारतीय रस-सिद्धान्त के अनुसार साधारणीकरण की आशा करना भी उचित नहीं । मिश्र जी के सभी नाटकों के चरित्रों में ('अशोक' और 'वत्सराज' को छोड़कर ) पश्चिमी वैचित्र्य भारी मात्रा में मिल जायगा । सभी चरित्रों में विचित्रता लाने में लेखक अत्यन्त सफल हुआ है। 'राक्षस का मन्दिर' के रामलाल, मुनीश्वर, ललिता और अश्गरी; 'मुक्ति का रहस्य' . के त्रिभुवननाथ और आशादेवी; 'सिन्दूर की होली' के मुरारीलाल, मनोज शंकर
और चन्द्रकला; 'राजयोग' के गजराज और नरेन्द्रः 'संन्यासी' के विश्वकांत श्रादि सभी में व्यक्ति-वैचित्र्य के दर्शन होंगे । इसमें चारित्रिक दुहरे पहलुओं का मेल है।
स्वगत, अर्धस्वगत, अश्राव्य, नियत श्राव्य का प्रायः इनके नाटकों में प्रयोग नहीं हुआ। कहीं इनका प्रयोग हुआ भी है तो बहुत कम और अत्यन्त संक्षिप्त । 'मुक्ति का रहस्य' में उमाशंकर ( मनोहर को गोद में उठाकर