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लक्ष्मीनारायण मिश्र
१५६ भावुकता की भूमि से हटाकर अपने विषय में स्वयं सोचने की ही नहीं, निर्णय भी करने की चेतना प्रायः सभी नाटकों में मिलती है। प्रेम के भुलावे में पड़कर नारी अपने जीवन को नष्ट न करके परिस्थिति से बुद्धि-सम्मत समझौता करके अपने जीवन और व्यक्तित्व का स्वयं निर्माण करे, यह अनेक पात्रों के चरित्र से लक्षित होता है।
ललिता ने रघुनाथ से प्रेम किया, पर उसे मालूम हुआ यह भूल है। उसके निर्माण का मार्ग यह नहीं । वह रघुनाथ को छोड़ देती है । आशा देवी ने उमाशंकर शर्मा से प्रेम किया, पर उसे मालूम हुआ वह उसके लिए बहुत ऊँचा है-आदर्शवादी है, उससे उसे सुख का सन्तोष न मिलेगा, इसलिए वह त्रिभुवननाथ के साथ हो ली। 'राजयोग' की चम्मा भी अतीत को भूलकर शत्रसूदन को स्वीकार कर लेती है। नरेन्द्र नया जीवन प्रारम्भ करता है। 'सिन्दूर की होली' की चन्द्रकला का व्यक्तित्व नारी के रूप में दिव्य है और वह भी मनोजशंकर से स्वतन्त्र होकर अपनी समस्या अपने-आप सुलझाने के लिए कटिबद्ध होती है। नारी की आर्थिक समस्या का समाधान भी उसे धनोपार्जन करने वाले प्राणी के रूप में रखकर किया गया है। मनोरमा चित्र-कला द्वारा रोटी कमा लेती है और चन्द्रकला भी कहीं अध्यापन आदि का कार्य करके स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करने का संकल्प करती है । वह मुरारीलाल से कहती है, "आपने कृपाकर मुझे शिक्षा इतनी दे दी है, कि अपना निर्वाह कर सकूँ ।" ____ काम इस युग की व्यापक और उलझनभरी समस्या है। सभ्यता के . विकास और विश्व के विभिन्न समाजों के पारस्परिक संपर्क ने इसको बहुत ही विशाल रूप में हमारे सामने रखा है। श्रादि युग से काम जीवन की जलती समस्या रहा है। विवाह-संस्था की स्थापना भी इसी का एक हल निकालने के लिए हुई थी, पर विवाह ने इसे और भी उलझा दिया। काम की अतृप्ति जीवन और समाज को कितना अपराध-ग्रस्त बना रही है, यह फ्रॉयड के ग्रंथों से प्रकट है। वह तो सभी अपराधों की जड़ 'काम' को ही मानता है। इधर आधुनिक शिक्षा, समाज-परिवर्तन, नवीन सभ्यता के आगमन से नारी और पुरुप को सम्पर्क में आने का प्रोत्साहन और अवसर तो मिला ही, पर पुराने संस्कारों ने काम-समस्या को और भी उलझा दिया, तृप्ति की ओर बढ़ने पर उनके पैरों में जंजीर डाल दी।
मिश्र जी ने अपने नाटकों में सर्व प्रथम इस समस्या को लिया। उनके ऐतिहासिक नाटकों को छोड़कर सभी नाटकों में काम-समस्या को तर्क के