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हिन्दी के नाटककार आधार पर सुलझाने का प्रयत्न किया गया है और इसके लिए लेखक ने यथार्थ वाद के नाम पर काफी स्वाधीनता का भी उपयोग किया है। स्त्रीपुरुष नैतिक बंधनों, धार्मिक रूढ़ियों और सामाजिक संस्कारों की दासता में पड़ कर प्राकृतिक जीवन-विकास का नाश न कर बैठें, इसलिए लेखक ने स्त्रीपुरुष को शारीरिक संबंधों में पर्याप्त स्वतन्त्रता दी है। अगरी मुनीश्वर से प्राकृतिक आनन्द-लाभ करती है । आशादेवी डॉक्टर त्रिभुवननाथ की तृप्ति का साधन बनने में अधिक आना-कानी नहीं करती । विवाह और प्रेम को भी मिश्र जी ने अलग-अलग रख दिया है। ''मैं तुम्हें अपना दूल्हा तो नहीं बना सकती, प्रेमी अवश्य बना लूगी।" से यह स्पष्ट हो जाता है। ___ एक व्यक्तिगत मानसिक उलझन को भी मिश्र जी ने बड़ी सफाई से अपने नाटकों में सुलझाया है । युग-युग से अपराध करके, मनुष्य में उसे छिपाने के प्रवृत्ति रही है। प्रकट हो जाने पर वह सामाजिक धार्मिक या नैतिक रूप में जन-समाज में बहिष्कृत न हो, उस भय से यह एक अपराध को छिपाने का दूसरा अपराध भी व्यक्ति के मन में पनपता आ रहा है । सचमुच यह बहुत घातक विष है, जो मनुष्य के मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य और आत्म-विश्वास को नष्ट कर डालता है। मुरारीलाल, गजराज, आशादेवी श्रादि पात्र इसी विष से छटपटाते रहते हैं । लेखक ने पाप का प्रायश्चित्त उसे स्वीकार कराकर करा दिया है। श्राशादेवी स्वीकार करती है कि उसने उमाशंकर की पत्नी को विष दिया । मुरारीलाल स्वीकार करता है कि उसने मनोज के पिता का वध किया, गजराज स्वीकार करता है कि चम्पा उसकी पुत्री है। इस स्वीकृति में ही पाप का क्षय है। नये जीवन का श्रारम्भ है।
पात्र-चरित्र-चित्रण 'अशोक' और 'वत्सराज' को छोड़कर मिश्र जी के सभी नाटक वर्तमान सामाजिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं। इनके सभी चरित्र वर्तमान समाज के पात्र हैं। सामाजिक नाटकों में भी इनके नाटक समस्या-प्रधान होने से पात्र भी यथार्थ जीवन के हैं। किसी में भी श्रादर्शवादी चरित्र के रंग नहीं मिलेंगे। भारतीय रस-सिद्धान्त की दृष्टि से इन पात्रों से रस का साधारणीकरण नहीं हो सकता और न इनमें से कोई भी पात्र दर्शक का रसालम्बन ही बन सकता। सामाजिक नाटकों के उपयुक्त ही इनके पात्र है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं; पर व्यक्ति-वैचित्र्य का उनमें बहुत प्राधिक्य हो गया है।