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हिन्दी के नाटककार अपनाया है। वह मानते हैं कि भावुकता या कल्पना से व्यक्ति या समाज का न तो निर्माण ही हो सकता है, न उसका हित हो। न भावुकता की फुलझड़ियों में मानव का प्राकृतिक जीवन विकसित हो सकता है और न उसका स्वास्थ्य ही कायम रह सकता है । जो लोग बुद्धिवाद को हानिकर समझते हैं और केवल श्रद्धा और भावुकता के सहारे जीवन चलाना चाहते हैं वे भ्रम में हैं। वह लिखते हैं, "बुद्धिवाद किसी तरह का हो, किसी कोटि का हो, समाज या साहित्य की हानि नही कर सकता। बुद्धिवाद में शूगर-कोटेड कुनैन की व्यवस्था है ही नहीं । वह तो तीक्ष्ण सत्य है । उसका घाव गहरा तो होता है, लेकिन अंग-भंग करने के लिए नहीं, मवाद निकालने के लिए, हमारी प्रसुप्त चेतना को जगाकर हमारे भीतर नवीन जीवन-नवीन स्फूर्ति पैदा करने के लिए।”
__ कुछ लोग कहते हैं कि बुद्धिवाद पर आधारित तर्क की यात्रा का छोर कहाँ होता है, यह कोई नहीं बता सकता। तर्क किये जाइए, अनेक बातें अनिश्चित ही रह जाती है । कभी भी केवल बुद्धिवाद के सहारे किसी परिणाम की पकड़ नहीं हो सकती । बुद्धिवाद ही आगे चलकर अविश्वास और संदेहवाद का रूप धारण कर लेता है । इसके उत्तर में मिश्र जी ने कहा है, "मेरा अपना विश्वास तो यह है कि बुद्धिवाद स्वतः अनन्त विश्वास है। इसमें भ्रम
और मिथ्या को स्थान नहीं ।" इसमें सन्देह नहीं कि बुद्धिवाद का विरोध ' प्रकाश की अवहेलना करके अन्धकार में जाने के समान है। पर केवल प्रज्वलित आग को ही यदि आँखों का दृश्याधार बनाया जाय तो निश्चित ही
आँखें अपना प्रकाश खो बैठेगी। ____ जीवन की समस्त समस्याएं सुलझाने के लिए बुद्धिवाद ही एक-नात्र श्राधार है, ऐसी लेखक की आस्था है। अपने नाटकों में अनेक स्थानों पर पात्रों से यह उन्होंने कहलाया भी है। सिन्दूर की होली' में मनोरमा लेखक के समान ही अनन्त विश्वास के साथ कहती है, “संसार की समस्याएं, जिनके लिए आजकल इतना शोर मचा है, तराजू के पलड़े पर नहीं सुलझाई जा सकती, वे पैदा हुई हैं बुद्धि से और उनका उत्तर भी बुद्धि ही से मिलेगा।'' __ लेखक के बुद्धिवाद की विजय सबसे अधिक 'मुक्ति का रहस्य' में पाई जाती है। 'राज योग' में भी बुद्धिवाद के द्वारा प्रेम समस्या का सन्तोषजनक हल है। यद्यपि इन दोनों नाटकों में भी भावुकता या समाज-संस्कार से लेखक अपना पीछा नहीं छुड़ा सका। उमाशंकर से विदा होते हुए श्राशादेवी के संवाद कोरी भावुकता के सिवा कुछ नहीं। त्रिभुवन नाथ से समझौता बुद्धि