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लक्ष्मीनारायण मिश्र वादी आत्म-सन्तोष है ही, इसमें नारी का श्रात्म-समर्पण भी है । इस आत्मसमर्पण में समाज-संस्कार का सबल आदेश है। इसमें नारी की यह भावना कि 'एक व्यक्ति से जब उसका शारीरिक सम्बन्ध हो गया तो वह उसकी हो गई, और के लिए पवित्र न रही,' भी काम कर रही है । हम जानते हैं, इतिहास में अनेक ऐसी मनगढन्त कहानियाँ हैं, जिनमें एक नारी किसी पुरुष के पंजे में फंसकर उसी की हो गई है। क्या आशा देवी का श्रात्म-समर्पण इसी प्रकार का नहीं ?
'राजयोग' का बुद्धिवाद कुछ अधिक सबल और विश्वसनीय है। नरेन्द्र चम्पा का त्याग कर देता है वह यदि भावुकता में ही पड़ा रहता तो उसका जीवन भी नष्ट होता और चम्पा और शत्र सूदन के जीवन-विनाश की भी आशंका हो सकती थी। तीन जीवनों के नष्ट करने की अपेक्षा यही अच्छा है कि तीनों अपना-अपना स्वस्थ जीवन बितायं । चम्पा को समझाते हुए नरेन्द्र कहता है, “मैंने यह वेश केवल इसलिए बनाया है कि मैं तुम्हें समझा हूँ, तुम्हारे रास्ते से हट जाऊँ । तुम नया उत्साह और नये जीवन-बल से जीवन प्रारम्भ करो। स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध किसी आध्यात्मिक आधार पर नहीं, नितांत भौतिक है । उसे और भी आकर्षक, सम्मोहक और विनाशक बनाने के लिए आध्यात्मिक रंग चढ़ाया जाता है।" ___ आगे वह और भी समझाता है, "प्रलय तो हो चुकी । अब तो फिर सृष्टि हो रही है। इसमें रुकावट न डालो। इसे होने दो । हाँ, होने दो । हमारा'.. हम सब लोगों का नया जन्म हो, नई परिस्थिति और नई जगह में हम लोग इस तरह मिलें, जैसे पहले-पहल मिल रहे हों। नारी-समस्या प्रस्तावों और तब तक नहीं सुलझाई जा सकती जब तक कि स्त्री स्वयं अपना हृदय व्याख्यानों से न बदले । 'बस इसी क्षण-इसी क्षण तुम्हें अपना हृदय बदल देना होगा । नहीं तो फिर तुम्हारे लिए कोई आशा नहीं और तुम्हारा असंयम हम हम सब को ले डूबेगा।" ____ बुद्धिवाद के द्वारा जिन समस्याओं को मिश्र जी ने सुलझाना चाहा है, उनका ऐसा समाधान नहीं हो पाता कि मस्तिष्क मान ले और तर्क निरुत्तर हो जाय । गल्ती तो घटनाओं के चुनाव और परिस्थिति में है। यह बात तो समझ में श्राती है कि आँसुओं और उच्छ्वासों में जीवन नष्ट न करके समाज का स्वस्थ सदस्य बनाना ही श्रेयस्कर है। प्रेम-गाथाओं की भावु कता हास्यास्पद ही नहीं, मूर्खता भी है -नाटकों में समस्या अधिक गम्भीर और उलझन